इस्लामाबादः जब पोखरण में गूंजा ‘स्माइलिंग बुद्धा’, तो इस गूंज ने पाकिस्तान तक हलचल मचा दी थी. भारत ने 18 मई 1974 को जब राजस्थान के पोखरण में अपने पहले परमाणु परीक्षण की घोषणा की, तो यह सिर्फ एक वैज्ञानिक उपलब्धि नहीं थी—यह एक भू-राजनीतिक धमाका था. इस परीक्षण के बाद भारत आधिकारिक तौर पर परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बन गया. लेकिन जहां एक ओर दुनिया भारत की तकनीकी सफलता पर चर्चा कर रही थी, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान की नींद उड़ चुकी थी.
पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को यह बात बिल्कुल मंजूर नहीं थी कि उनका देश अपने चिर-प्रतिद्वंदी भारत से पीछे रह जाए. उन्होंने तुरंत घोषणा कर दी कि चाहे पाकिस्तान के लोगों को घास क्यों न खानी पड़े, लेकिन पाकिस्तान भी परमाणु बम जरूर बनाएगा.
कहूटा में एक गुप्त प्रयोगशाला स्थापित की
इसके बाद शुरू हुई एक गुप्त और तेज़ रफ्तार परियोजना — जिसे आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई डच प्रयोगशाला में काम कर रहे पाकिस्तानी वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कादिर खान को. खान ने यूरोप में यूरेनियम संवर्धन की तकनीक सीखी थी और भुट्टो के न्यौते पर पाकिस्तान लौटकर उन्होंने कहूटा में एक गुप्त प्रयोगशाला स्थापित की.
हालांकि शुरुआत आसान नहीं थी. पहले वे पाकिस्तान एटॉमिक एनर्जी कमीशन (PAEC) में शामिल हुए, लेकिन उनके और मौजूदा प्रमुख मुनीर अहमद के बीच लगातार मतभेद रहे. भुट्टो को समझ आ गया कि दो विचारधाराओं से काम नहीं चलेगा, इसलिए उन्होंने खान को स्वतंत्र प्रोजेक्ट प्रमुख बनाकर सीधे प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह कर दिया.
1970 के दशक के आखिर तक भारत को इस परियोजना की भनक लग चुकी थी. RAW यानी भारत की खुफिया एजेंसी लगातार पाकिस्तान की गतिविधियों पर नज़र रखे हुए थी. 1979 तक भारतीय एजेंसियों ने अनुमान लगा लिया था कि पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम कहूटा में आगे बढ़ रहा है.
...तो यह खतरा और स्पष्ट हो गया
इधर पाकिस्तान को भी खतरे का अंदेशा हो गया. जनरल जिया-उल-हक के सैन्य शासन में पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियां सतर्क हो गईं. जब वायुसेना प्रमुख अनवर शमीम ने चेताया कि भारत के लड़ाकू विमान कहूटा तक महज तीन मिनट में पहुंच सकते हैं, जबकि पाकिस्तानी जवाबी विमानों को पहुंचने में आठ मिनट लगेंगे — तो यह खतरा और स्पष्ट हो गया.
अब पाकिस्तान को परमाणु हथियारों के साथ-साथ हवा से अपनी सुरक्षा के लिए भी आधुनिक लड़ाकू विमानों की ज़रूरत थी. सोवियत संघ के अफगानिस्तान पर हमले ने अमेरिका को पाकिस्तान के करीब ला दिया. अमेरिका ने पाकिस्तान को F-16 जैसे एडवांस जेट्स देने की स्वीकृति दी — और यही वह मोड़ था जिसने दक्षिण एशिया की रणनीति को बदल डाला.
भारत ने इस बीच हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा था. 1981 में इज़रायल ने इराक के ओसिराक रिएक्टर पर बमबारी की, जिससे भारत को प्रेरणा मिली कि एक सर्जिकल स्ट्राइक से दुश्मन के परमाणु कार्यक्रम को रोका जा सकता है. उसी साल भारतीय वायुसेना ने कहूटा पर हमले की योजना बनाई, लेकिन इस हमले को आगे बढ़ाने से रोक दिया गया — क्योंकि इससे परमाणु युद्ध छिड़ने की आशंका थी.
एड्रियन लेवी और कैथरीन स्कॉट-क्लार्क की चर्चित किताब “Deception” में उल्लेख है कि भारत ने 1983 में इज़रायल के साथ मिलकर कहूटा मिशन को फिर से आकार देने की कोशिश की थी. इज़रायल, जो इस्लामिक बम के विचार से हमेशा आशंकित रहा है, उसने भारत को न केवल तकनीकी सहायता दी बल्कि एक ऑपरेशनल योजना भी पेश की. इज़रायली जेट्स गुजरात के जामनगर से उड़ते, कहूटा को निशाना बनाते और फिर भारत में ही लैंड करते.
भारत ने आखिरी समय पर यह ऑपरेशन रोक दिया
इंदिरा गांधी ने इस ऑपरेशन पर एक समय सहमति भी जताई थी. लेकिन जैसे ही अमेरिका को इसकी भनक लगी, उन्होंने पाकिस्तान को सतर्क कर दिया. पाकिस्तानी वैज्ञानिक मुनीर अहमद ने वियना में भारत के परमाणु वैज्ञानिक राजा रमन्ना को स्पष्ट चेतावनी दी — अगर हमला हुआ, तो पाकिस्तान भी भारत की परमाणु परियोजनाओं को मिटा देगा.
इन धमकियों और अमेरिकी दखल के चलते भारत ने आखिरी समय पर यह ऑपरेशन रोक दिया. कहूटा तब बच गया, लेकिन पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम की रफ्तार धीमी जरूर हुई.
इसके बावजूद पाकिस्तान रुका नहीं. तमाम खुफिया दबाव, टेक्निकल अड़चनें और अंतरराष्ट्रीय चिंताओं के बावजूद 28 मई 1998 को पाकिस्तान ने चगाई पहाड़ों में अपने पहले परमाणु परीक्षण की घोषणा की — और खुद को दक्षिण एशिया की दो प्रमुख परमाणु शक्तियों में शामिल कर लिया.
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