जुमे की नमाज नहीं पढ़ी, तो जाओगे जेल... कहां जारी हुआ ऐसा तालिबानी फरमान

    मलेशिया के तरेंगानू राज्य ने धार्मिक नियमों के पालन को लेकर एक बड़ा और विवादास्पद फैसला लिया है. अब इस राज्य में अगर कोई मुस्लिम पुरुष बिना किसी वैध कारण के जुमे की नमाज़ नहीं पढ़ता है, तो उसे जेल की सजा या जुर्माने का सामना करना पड़ सकता है.

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    मलेशिया के तरेंगानू राज्य ने धार्मिक नियमों के पालन को लेकर एक बड़ा और विवादास्पद फैसला लिया है. अब इस राज्य में अगर कोई मुस्लिम पुरुष बिना किसी वैध कारण के जुमे की नमाज़ नहीं पढ़ता है, तो उसे जेल की सजा या जुर्माने का सामना करना पड़ सकता है. यह फैसला राज्य में शरिया कानून को और सख्ती से लागू करने की दिशा में उठाया गया कदम माना जा रहा है.

    तरेंगानू के शरिया मामलों के मंत्री मोहम्मद खलील अब्दुल हादी ने नए कानून की जानकारी देते हुए कहा कि जुमे की नमाज़ को केवल एक धार्मिक रिवाज नहीं, बल्कि इस्लामिक आदेश की तरह समझा जाना चाहिए. उन्होंने साफ किया कि यह सजा इसलिए है ताकि लोग इस धार्मिक जिम्मेदारी को हल्के में न लें.

    जुमा की नमाज़ अब केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं, कानूनी बाध्यता

    नए कानून के तहत, अगर कोई व्यक्ति जुमा की नमाज़ लगातार छोड़ता है, तो उसे दो साल तक की जेल, या 3,000 रिंगिट (लगभग ₹61,780) का जुर्माना, या फिर दोनों ही सजाएं दी जा सकती हैं. इससे पहले यह सजा तीन बार नमाज़ छोड़ने के बाद लागू होती थी, लेकिन अब नियमों को और कड़ा कर दिया गया है.

    तरेंगानू: धार्मिक कठोरता की ओर बढ़ता राज्य

    तरेंगानू मलेशिया का एक ऐसा राज्य है, जहां धार्मिक परंपराओं और कट्टरता को लेकर लंबे समय से कड़े नियम अपनाए जाते रहे हैं. यहां की कुल आबादी करीब 12 लाख है, जिनमें से लगभग 99% मुस्लिम हैं. यह राज्य पैन-मलेशियन इस्लामिक पार्टी (PAS) का गढ़ है, जिसने 2022 के विधानसभा चुनावों में सभी 32 सीटें जीत ली थीं. यहां कोई राजनीतिक विपक्ष नहीं है, जो इस तरह के फैसलों पर सवाल उठा सके. यही कारण है कि धार्मिक नीतियों को सख्ती से लागू करने में राज्य सरकार को कोई रुकावट नहीं झेलनी पड़ती.

    राजनीतिक फायदे का मामला?

    विशेषज्ञ मानते हैं कि इस तरह के फैसले सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक चाल का हिस्सा भी हो सकते हैं. मलेशिया में इन दिनों प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम की सरकार है और उनके कार्यकाल में धार्मिक कट्टरता बढ़ने के आरोप लगते रहे हैं. विश्लेषकों का मानना है कि कुछ राज्यों में धार्मिक नियमों को कड़ा करके लोकप्रियता और राजनीतिक पकड़ मजबूत करने की कोशिश की जा रही है. विशेषकर उन इलाकों में, जहां बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी है और धार्मिक भावना को आसानी से राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.

    अंतरराष्ट्रीय चिंता और आलोचना

    इस तरह के कड़े धार्मिक कानूनों की अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आलोचना होती रही है. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि धार्मिक स्वतंत्रता एक व्यक्तिगत अधिकार है और किसी भी व्यक्ति को अपनी आस्था या उपासना के तरीके के लिए कानूनी सजा देना उचित नहीं है. हालांकि, तरेंगानू जैसे राज्य इसे अपने संवैधानिक अधिकार और सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा मानते हैं. लेकिन सवाल यही है कि व्यक्तिगत आस्था और राज्य के धार्मिक कानूनों के बीच संतुलन कहां रखा जाएगा?

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