यूरोप में नौकरी का मतलब... इंजीनियर ने बताया जर्मनी में कैसा है वर्क-कल्चर; देखें VIDEO

    भारतीय आईटी कंपनियों में काम का दबाव किसी रहस्य से कम नहीं. घंटों की भागदौड़, ओवरटाइम और लगातार तनाव कई कर्मचारियों के लिए दिनचर्या बन चुका है. इसी बीच जर्मनी में काम कर रहे भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर कौस्तव बनर्जी की एक इंस्टाग्राम पोस्ट ने इस चर्चा को फिर हवा दे दी.

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    भारतीय आईटी कंपनियों में काम का दबाव किसी रहस्य से कम नहीं. घंटों की भागदौड़, ओवरटाइम और लगातार तनाव कई कर्मचारियों के लिए दिनचर्या बन चुका है. इसी बीच जर्मनी में काम कर रहे भारतीय सॉफ्टवेयर इंजीनियर कौस्तव बनर्जी की एक इंस्टाग्राम पोस्ट ने इस चर्चा को फिर हवा दे दी. अपनी पोस्ट में उन्होंने बताया कि कैसे भारत में उनकी पेशेवर ज़िंदगी ‘काम के बोझ’ की कहानी थी, जबकि जर्मनी जाकर उन्होंने पहली बार जाना कि वर्क–लाइफ बैलेंस वास्तव में होता क्या है.


    कौस्तव बताते हैं कि 2013 में ग्रेजुएशन तक उन्होंने ‘वर्क–लाइफ बैलेंस’ शब्द तो सुना था, पर उसका वास्तविक मतलब कभी महसूस नहीं किया. नौकरी शुरू होते ही उनसे हर दिन “200% देने” की उम्मीद की जाती थी—चाहे फीवर हो या फैमिली इमरजेंसी.उनके अनुसार, भारत में लगातार तेज़ रफ्तार से काम करना ही सामान्य माना जाता है. तनाव, बर्नआउट और दबाव इतना अधिक होता है कि अपने लिए या परिवार के लिए समय निकालना लगभग असंभव हो जाता है.

    छुट्टियां—सिस्टम में मौजूद, ज़िंदगी में गायब

    कौस्तव के मुताबिक, भारत में छुट्टियां अक्सर सिर्फ HR पोर्टल में बची रह जाती हैं.वीकेंड पर काम करने के बाद मिलने वाली कम्पेंसेटरी लीव भी अक्सर मिल नहीं पाती क्योंकि काम का बोझ हमेशा सिर पर होता है.वेकेशन के लिए आवेदन करना भी किसी “संघर्ष” जैसा महसूस होता था—जैसे आप कोई बड़ी रियायत मांग रहे हों.

    जर्मनी ने बदली सोच—ऑफिस के बाद कर्मचारी पूरी तरह ‘ऑफ’

    कौस्तव लिखते हैं कि यूरोप पहुंचने के बाद उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि काम ज़िंदगी का हिस्सा है, पूरी ज़िंदगी नहीं.जर्मनी में ऑफिस का समय खत्म होते ही कर्मचारी सचमुच ‘ऑफ’ माने जाते हैं—कोई मेल चेक करने की उम्मीद नहीं, कोई रात का संदेश नहीं, न ही वीकेंड पर कॉल.यहां कंपनियां कर्मचारियों के निजी समय में दखल को गैर–जरूरी ही नहीं, बल्कि गलत मानती हैं.

    छुट्टियां लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है

    यूरोप में 25–30 दिन की पेड लीव आम बात है, और कंपनियां चाहती भी हैं कि कर्मचारी इसे पूरा इस्तेमाल करें.कारण साफ है—तरोताजा इंसान ज्यादा प्रभावी तरीके से काम करता है.वर्कलोड को संतुलित रखना, कर्मचारियों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता देना और उनकी सीमाओं का सम्मान करना यहां की सामान्य कार्य संस्कृति है.

    यहां ‘काम से ज्यादा इंसान’ अहम

    कौस्तव बताते हैं कि यूरोप में यह सोच पक्की है कि किसी भी कर्मचारी की निजी जिंदगी ही उसकी कार्यक्षमता की नींव होती है.यहां ओवरवर्क को “मेहनत” नहीं, बल्कि सिस्टम की खामी माना जाता है.उनकी पोस्ट के बाद सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई—कई भारतीय यूजर्स ने स्वीकार किया कि भारत में कॉरपोरेट संस्कृति में बदलाव की जरूरत है.

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