गयाजीः बिहार सरकार ने हाल ही में एक ऐसा निर्णय लिया है, जो न सिर्फ प्रशासनिक रूप से अहम है बल्कि भावनात्मक और आध्यात्मिक स्तर पर भी लोगों के दिलों को छूता है. गया शहर, जो वर्षों से पिंडदान और श्राद्ध कर्म की अपनी परंपरा के लिए प्रसिद्ध रहा है, अब आधिकारिक रूप से ‘गयाजी’ कहलाएगा. शुक्रवार को हुई राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई है. जैसे ही यह फैसला सामने आया, पूरे देश में खासकर गूगल पर “गयाजी” शब्द की खोज में अचानक उछाल आ गया.
लेकिन, सवाल यह है कि गया का नाम बदलकर गयाजी क्यों रखा गया? क्या केवल धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया गया है या इसके पीछे कोई ऐतिहासिक और पौराणिक गहराई भी है? आइए इस लेख में गयाजी से जुड़ी कहानी, मान्यताओं और परंपराओं को विस्तार से समझते हैं.
गयाजी क्यों है इतना खास?
गया भारत के सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक माना जाता है, खासकर पितृपक्ष के दौरान. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, यहां पिंडदान करने से पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष मिलता है और उन्हें जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है. यही कारण है कि हर साल पितृपक्ष में लाखों श्रद्धालु गयाजी पहुंचते हैं और फल्गु नदी के किनारे विष्णुपद मंदिर के पास पिंडदान करते हैं.
शहर का नाम बदलकर ‘गयाजी’ करना एक तरह से उन भावनाओं और परंपराओं को आधिकारिक दर्जा देना है, जिन्हें वर्षों से आमजन सम्मान की दृष्टि से अपनाते रहे हैं. लोग पहले से ही इस शहर को “गयाजी” के नाम से संबोधित करते रहे हैं, और अब यह सरकार द्वारा स्वीकृत हो गया है.
पौराणिक कथा: असुर गयासुर से गयाजी तक
गयाजी की उत्पत्ति की कहानी सीधे हिंदू धर्मग्रंथों से जुड़ी हुई है. ब्रह्मांड की रचना के समय ब्रह्मा जी ने गयासुर नामक एक असुर की रचना की थी. हालांकि वह असुर कुल में जन्मा था, लेकिन उसका स्वभाव अत्यंत सात्विक और भक्तिमय था. उसने अपने जीवन का उद्देश्य पुण्य अर्जन और मोक्ष प्राप्ति को बना लिया.
गयासुर ने कठोर तपस्या की और भगवान विष्णु को प्रसन्न कर लिया. उसने वरदान मांगा कि जो भी उसे देखे, उसके सारे पाप नष्ट हो जाएं और उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो. श्रीहरि ने उसे तथास्तु कहा और उसके शरीर में वास कर लिया. इसके बाद गयासुर घूम-घूमकर लोगों के पाप धोने लगा.
लेकिन इसकी एक बड़ी समस्या यह हो गई कि पापी भी बिना प्रायश्चित किए स्वर्ग के अधिकारी बनने लगे. यमराज की पूरी व्यवस्था चरमरा गई. उन्होंने ब्रह्मा जी से सहायता मांगी, जिन्होंने गयासुर को एक यज्ञ स्थल बनाने का प्रस्ताव दिया और उसकी पीठ पर बैठकर देवताओं के साथ यज्ञ किया. इसके बावजूद गयासुर अचल नहीं हुआ.
तब भगवान विष्णु स्वयं गयासुर की पीठ पर विराजमान हुए. गयासुर ने भगवान से अनुरोध किया कि वे उसे पत्थर बना दें ताकि देवता सदा उस स्थान पर वास करें और वह स्थल पिंडदान के लिए पवित्र तीर्थ बने. इस पर भगवान विष्णु ने उसे आशीर्वाद दिया और गयासुर की पीठ पर गयाजी की स्थापना हुई.
विष्णुपद मंदिर और श्रीहरि के चरण
गयाजी में स्थित विष्णुपद मंदिर इस कथा का सबसे प्रमुख प्रमाण माना जाता है. यहां एक चट्टान पर भगवान विष्णु के चरण चिन्ह अंकित हैं, जो इस बात का प्रतीक हैं कि स्वयं भगवान ने इस भूमि को पवित्र किया है. यह वही स्थान है जहां भगवान विष्णु ने गयासुर को पत्थर के रूप में स्थापित किया था.
यह मंदिर फल्गु नदी के तट पर स्थित है और यहीं पिंडदान की मुख्य प्रक्रिया पूरी की जाती है. मान्यता है कि इसी स्थान पर माता सीता ने राजा दशरथ का पिंडदान किया था, जब वे राम के साथ वनवास पर थीं. आज भी वहां ‘सीताकुंड’ नामक स्थान श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केंद्र बना हुआ है.
'गयाजी' नाम परिवर्तन का महत्व
गया को 'गयाजी' कहने का भाव मात्र एक संबोधन नहीं है, बल्कि यह श्रद्धा, परंपरा और आस्था का सम्मान है. सरकार के इस निर्णय से उस सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को मजबूती मिली है, जो सदियों से आम जनमानस में विद्यमान है.
इस निर्णय के बाद यह न केवल भारत के धार्मिक नक्शे पर अधिक प्रमुखता से उभरेगा, बल्कि तीर्थाटन और आध्यात्मिक पर्यटन को भी एक नई दिशा मिल सकती है. विदेशों में बसे लाखों प्रवासी भारतीय, जो अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए गयाजी में पिंडदान करना चाहते हैं, उन्हें अब यह स्थल और भी आधिकारिक, पवित्र और संगठित प्रतीत होगा.
आज की युवा पीढ़ी क्यों है उत्सुक?
आज की डिजिटल और जागरूक पीढ़ी इस फैसले को लेकर काफी जिज्ञासु नजर आ रही है. सोशल मीडिया और सर्च इंजन पर “गयाजी” को लेकर व्यापक खोज और बातचीत देखने को मिल रही है. युवा जानना चाहते हैं कि यह नाम क्यों बदला गया, क्या इसकी कोई ऐतिहासिक जड़ें हैं या यह सिर्फ एक धार्मिक आग्रह था?
इस संदर्भ में यह आवश्यक है कि हम नई पीढ़ी को धर्म, संस्कृति और परंपराओं से जोड़ने के लिए ऐसी कथाओं और निर्णयों की सही व्याख्या करें. इससे उन्हें न केवल अपनी जड़ों को समझने में मदद मिलेगी, बल्कि उन्हें भारतीय परंपराओं की गहराई का भी अनुभव होगा.
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