नई दिल्ली: तुर्की ने औपचारिक रूप से ब्रिक्स (BRICS) की पूर्ण सदस्यता के लिए आवेदन किया है, लेकिन क्या उसे वाकई इस वैश्विक मंच में जगह मिल पाएगी? और क्या भारत, जो ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है, इस पर आपत्ति जताकर तुर्की की उम्मीदों पर पानी फेर सकता है? इन सवालों के जवाब सीधे कूटनीति, भू-राजनीति और रणनीतिक संतुलन से जुड़े हैं.
तुर्की की उत्सुकता और भारत की सतर्कता
पिछले कुछ सालों में तुर्की ने खुद को मुस्लिम दुनिया में एक मजबूत आवाज़ के रूप में प्रस्तुत किया है. लेकिन भारत के दृष्टिकोण से उसकी यह भूमिका कई बार विवादित रही है — खासतौर पर कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के सुर में सुर मिलाना और उसे सैन्य उपकरण, खासकर ड्रोन, की आपूर्ति करना भारत के लिए चिंता का विषय रहा है.
यही कारण है कि जब तुर्की ने BRICS की सदस्यता के लिए आधिकारिक आवेदन किया, तो भारत ने उत्साह नहीं दिखाया.
तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगन ने कई बार इस संगठन में शामिल होने की इच्छा जाहिर की है, लेकिन भारत की प्रतिक्रिया अब तक संयमित और सतर्क रही है.
BRICS क्या है और क्यों है यह इतना अहम?
BRICS (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, साउथ अफ्रीका) उन प्रमुख उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं का समूह है जो वैश्विक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में संतुलन बनाने का दावा करता है. हाल के वर्षों में इसमें ईरान, मिस्र, इथियोपिया और यूएई को भी जोड़ा गया है, जिससे यह मंच अब "BRICS " के रूप में पहचाना जाने लगा है.
यह मंच ना सिर्फ आर्थिक साझेदारी को बढ़ावा देता है, बल्कि पश्चिमी गुटों जैसे G7 और NATO के विकल्प के रूप में भी उभर रहा है.
भारत की भूमिका: आर्थिक ताकत
भारत न केवल BRICS का संस्थापक सदस्य है, बल्कि इसकी सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और एशिया की रणनीतिक स्थिति इसे समूह में एक निर्णायक भूमिका देती है. कई मुद्दों पर भारत और चीन के विचार भिन्न होते हैं, लेकिन BRICS जैसे मंचों पर भारत संतुलनकारी भूमिका निभाता है.
यही वजह है कि किसी नए सदस्य को जोड़ने से पहले भारत की स्वीकृति अनिवार्य होती है. BRICS में सदस्यता सर्वसम्मति से दी जाती है — यानी अगर भारत ना कह दे, तो तुर्की का रास्ता रुक सकता है.
क्या भारत ने तुर्की की सदस्यता रोक दी है?
इस पर फिलहाल स्पष्ट और आधिकारिक बयान नहीं आया है. लेकिन कुछ यूरोपीय मीडिया रिपोर्ट्स — जैसे जर्मन अख़बार बिल्ड — दावा कर चुके हैं कि भारत ने तुर्की की सदस्यता का विरोध किया है, खासकर पाकिस्तान से उसकी नजदीकी के चलते.
हालांकि तुर्की के पूर्व राजनयिक और खुद एर्दोगन के कार्यालय ने इन दावों को नकारते हुए कहा है कि BRICS विस्तार पर कोई वोटिंग नहीं हुई और भारत ने सदस्यता को अवरुद्ध नहीं किया.
इस बीच, अंदरूनी रिपोर्टें यह भी बताती हैं कि ब्रिक्स के कई अन्य सदस्य देश भी तेजी से विस्तार के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि इससे संगठन की स्थिरता और संतुलन प्रभावित हो सकता है.
तुर्की क्यों चाहता है BRICS की सदस्यता?
तुर्की की रणनीति साफ़ है — यूरोपीय संघ और NATO पर उसकी निर्भरता लगातार कम हो रही है. यूरोपीय संघ में शामिल होने की उसकी दशकों लंबी कोशिशें विफल हो चुकी हैं और पश्चिमी देशों के साथ उसके संबंध अब उतने सहज नहीं रहे.
ऐसे में BRICS उसे एक वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय मंच देता है, जहाँ वह खुद को वैश्विक दक्षिण के देशों के साथ जोड़ सकता है — जो न केवल राजनीतिक, बल्कि आर्थिक साझेदारी के नए अवसर खोल सकता है.
पार्टनर कंट्री से आगे बढ़ पाएगा तुर्की?
वर्तमान में तुर्की BRICS का पार्टनर कंट्री है — यानी उसे आमंत्रित किया जाता है, लेकिन वह निर्णय प्रक्रिया में भाग नहीं ले सकता. यह दर्जा उन्हें तब मिलता है जब उनकी सदस्यता पर विचार चल रहा हो या वे संगठन से मजबूत रिश्ते बनाना चाहें.
लेकिन पूर्ण सदस्यता का दर्जा पाना आसान नहीं — खासतौर पर तब, जब एक स्थायी सदस्य (जैसे भारत) आपत्ति जता सकता है.
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