मुंबई: महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर करवट लेती दिख रही है. वर्षों पुराने पारिवारिक और राजनीतिक मतभेदों के बाद अब यह सवाल जोर पकड़ रहा है कि क्या उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे फिर एक मंच पर आ सकते हैं? मराठी अस्मिता, राज्यहित और सांस्कृतिक पहचान जैसे मुद्दों ने दोनों नेताओं को एक बार फिर करीब लाने की संभावनाएं जगा दी हैं.
दरअसल हाल ही में राज ठाकरे ने अभिनेता महेश मांजरेकर के पॉडकास्ट में अपने मन की बात रखी. उनके शब्दों में एक स्पष्ट संकेत छुपा था. "जब बड़े मुद्दे सामने होते हैं, तो आपसी झगड़े छोटे लगते हैं. महाराष्ट्र और मराठी मानुष के लिए हमारे बीच के झगड़े तुच्छ हैं. साथ आना मुश्किल नहीं, बस इच्छा होनी चाहिए."
समर्थन पर सवाल, मराठी हितों की प्राथमिकता
राज ठाकरे के बयान के बाद शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भी अपनी बात रखी. उन्होंने भावनात्मक तौर पर मराठी एकता का समर्थन तो किया, लेकिन पुराने घावों पर भी इशारों में उंगली रख दी. "मैं भी चाहता हूं कि मराठी लोग एकजुट हों, लेकिन जब मैं लोकसभा चुनाव के समय महाराष्ट्र से उद्योगों को गुजरात ले जाने का विरोध कर रहा था, तब साथ नहीं मिला. अब विरोध करके और फिर समझौते की बात करना सही नहीं है." उद्धव का ये बयान यह भी दर्शाता है कि राजनीति में वापसी की शर्तें अब भावनाओं से नहीं, फैसलों से जुड़ी हैं.
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शिंदे की राज ठाकरे से मुलाकात: संयोग या रणनीति?
इस पूरे घटनाक्रम के बीच एक और बड़ी हलचल हुई. महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने राज ठाकरे से दादर स्थित उनके घर पर मुलाकात की. यह सिर्फ एक "सौजन्य भेंट" नहीं थी, बल्कि बृहन्मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनावों से पहले सियासी संभावनाओं की टोह लेने की एक कोशिश भी मानी जा रही है. सूत्रों के मुताबिक इस रात्रि भोज में न सिर्फ शिंदे और ठाकरे परिवार मौजूद थे, बल्कि भाजपा समर्थित महायुति सरकार के मंत्री उदय सामंत भी शामिल थे.
मराठी भाषा का मुद्दा फिर गरमाया
मनसे ने हाल ही में मराठी भाषा के व्यापक इस्तेमाल को लेकर फिर से सक्रियता दिखाई है. यह मुद्दा हमेशा से ही राज ठाकरे की राजनीति की रीढ़ रहा है. ऐसे में आगामी मुंबई नगर निगम चुनावों से पहले मराठी अस्मिता की आग को फिर से हवा देना, एक रणनीतिक चाल मानी जा रही है.
क्या फिर जुड़ेगी ठाकरे विरासत की डोर?
राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता. उद्धव और राज ठाकरे की अलग राहें अब चाहे जितनी दूर जा चुकी हों, लेकिन मराठी स्वाभिमान की साझा जमीन शायद फिर से उन्हें एक मंच पर लाने की कोशिश कर रही है.
पर सवाल अब भी बना हुआ है — क्या यह सिर्फ बयानबाज़ी है या भविष्य की किसी बड़ी सियासी पटकथा की शुरुआत