50 प्राइवेट गनमैन और बाहुबली भी डरते थे जिससे... उस "रॉबिन हुड" की कहानी, जिसका जीवन राजनीति और अपराध का रहा संगम

    Kali Prasad Pandey: गोपालगंज की मिट्टी ने न जाने कितने नेता दिए, लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं जो समय की धूल में नहीं खोते, बल्कि समय उन्हें और भी चमका देता है. काली प्रसाद पांडे ऐसा ही एक नाम थे.

    The story of Robin Hood Kali Prasad Pandey whose life was a confluence of politics and crime
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    Kali Prasad Pandey: गोपालगंज की मिट्टी ने न जाने कितने नेता दिए, लेकिन कुछ नाम ऐसे होते हैं जो समय की धूल में नहीं खोते, बल्कि समय उन्हें और भी चमका देता है. काली प्रसाद पांडे ऐसा ही एक नाम थे. बिहार की राजनीति में उनका जिक्र होते ही एक रॉबिन हुड-सी छवि सामने उभरती है, एक ऐसा नेता, जो गरीबों का मसीहा था, जो सत्ता के गलियारों में भी गरीब की बात करने से नहीं झिझकता था, और जिसने अपराधियों के बीच भी ऐसा खौफ पैदा किया कि नाम सुनते ही लोग कांप जाते थे.

    आज वो हमारे बीच नहीं हैं. 22 अगस्त की रात, दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया. लेकिन रमजीता गांव से निकलकर दिल्ली की संसद तक का जो सफर उन्होंने तय किया, वह अब एक जीवित किंवदंती बन चुका है.

    जेल की सलाखों के बीच से संसद की दहलीज़ तक

    1984 का दौर था. देश इंदिरा गांधी की हत्या से शोक में डूबा था. कांग्रेस की लहर पूरे देश में थी, लेकिन गोपालगंज में एक निर्दलीय उम्मीदवार, वो भी जेल में बंद, ऐसा चमत्कार कर गया जिसकी मिसाल आज तक दी जाती है. काली पांडे ने जेल से चुनाव लड़कर न सिर्फ जीत दर्ज की, बल्कि उस समय सबसे बड़े अंतर से जीतने वाले सांसद बन गए. वो दौर था जब राजनीति में निष्ठा और प्रभाव दोनों का मायना कुछ और ही होता था.

    जब विधायक बना 'स्वतंत्र' चेहरा

    राजनीति में काली पांडे की शुरुआत 1980 में बतौर निर्दलीय विधायक हुई. किसी पार्टी के सहारे नहीं, बल्कि जनसमर्थन के दम पर विधानसभा में पहुंचे थे. यही वो वक्त था जब उनके इर्द-गिर्द एक 'जन नेता' की छवि बनने लगी. उनके दरवाजे पर जो भी जाता, उसे निराश नहीं लौटना पड़ता.

    राजनीति और अपराध का अनोखा संगम

    बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का दबदबा रहा है. लेकिन शिवान के कुख्यात सांसद शहाबुद्दीन जैसे बाहुबली जब खुद काली पांडे को अपना "गुरु" कहते थे, तो ये बताने के लिए काफी है कि काली पांडे की हैसियत क्या थी. राजनीति की गलियों में ये किस्सा मशहूर है कि कैसे शहाबुद्दीन ने भी अपने करियर की शुरुआत निर्दलीय विधायक के रूप में की थी, ठीक वैसे ही जैसे काली पांडे ने.

    ‘जंगल पार्टी’ से अकेले भिड़ने वाला नेता

    गोपालगंज के दियारा इलाकों में कभी ‘जंगल पार्टी’ का खौफ था. लेकिन काली पांडे ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला, और नतीजा यह हुआ कि उस इलाक़े में अपराधों पर नियंत्रण भी स्थापित हुआ. लोग उन्हें सिर्फ नेता नहीं, रक्षक मानने लगे.

    लोजपा से कांग्रेस तक का सफर

    2003 में रामविलास पासवान ने जब लोक जनशक्ति पार्टी बनाई, तो काली पांडे उसमें शामिल हुए. उन्हें पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव, प्रवक्ता और उत्तर प्रदेश के पर्यवेक्षक जैसी अहम जिम्मेदारियां दी गईं. फिर 2020 में उन्होंने घर वापसी करते हुए कांग्रेस का दामन थामा और कुचायकोट से चुनाव भी लड़ा, लेकिन यह लड़ाई उतनी सफल नहीं रही.

    बॉलीवुड तक गूंजा नाम

    1987 में आई फिल्म ‘प्रतिघात’ को लेकर भी कयास लगाए जाते हैं कि उसका एक किरदार काली पांडे से प्रेरित था. ऐसा नेता जिसकी छवि इतनी दमदार थी कि बॉलीवुड तक पहुंच गई.

    आरोप लगे, लेकिन साबित नहीं हुए

    राजनीतिक जीवन में विवाद भी साथ चलते हैं. 1989 में नगीना राय पर पटना जंक्शन पर हुए बम हमले का आरोप उन पर लगा. लेकिन कभी कोई आरोप कोर्ट में साबित नहीं हो सका. वह हमेशा खुद को जनता का सच्चा सेवक बताते रहे.

    50 बॉडीगार्ड, लेकिन जनता के लिए दरवाजा हमेशा खुला

    उनके काफिले में भले ही दर्जनों गाड़ियां और 50 प्राइवेट गनमैन होते थे, लेकिन काली पांडे से मिलने के लिए किसी सिफारिश की जरूरत नहीं पड़ती थी. गरीब हो या अमीर, नेता हो या आम आदमी, उनके दरवाजे सबके लिए खुले रहते थे.

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