कोविड-19 के उस दौर की यादें आज भी लोगों के जहन में ताजा हैं- कर्फ्यू, डर, और हर तरफ एक अजीब सा सन्नाटा. इसी दौरान तब्लीगी जमात का नाम अचानक सुर्खियों में आ गया. निजामुद्दीन मरकज में हुए धार्मिक कार्यक्रम को लेकर देशभर में जमकर बहस हुई. माहौल ऐसा बन गया जैसे महामारी फैलाने के लिए एक समुदाय को ही जिम्मेदार ठहरा दिया गया हो. लेकिन अब दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला इस पूरे मामले में एक नई रोशनी लेकर आया है.
70 लोगों पर चल रहे केस रद्द
दिल्ली हाईकोर्ट ने उन 70 भारतीय नागरिकों के खिलाफ दायर 16 चार्जशीट्स को खारिज कर दिया है, जिन पर तब्लीगी जमात के विदेशी मेहमानों को कोरोना के दौरान अपने घरों और मस्जिदों में शरण देने का आरोप था. अदालत ने साफ कहा है कि इस मामले में कोई ठोस आधार नहीं था कि इन लोगों ने किसी महामारी को फैलाने में कोई लापरवाही या जानबूझकर नियम तोड़े.
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा की दो टूक टिप्पणी
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा की बेंच ने यह फैसला सुनाते हुए कहा कि चार्जशीट में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिससे यह साबित होता हो कि जिन लोगों को घर में पनाह दी गई थी, वे कोविड पॉजिटिव थे या उनके जरिए संक्रमण फैला. न ही कोई ऐसा सबूत पेश किया गया जिससे यह लगे कि याचिकाकर्ताओं ने किसी तरह के धार्मिक या सामाजिक आयोजन का आयोजन किया था.
दिल्ली पुलिस का पक्ष और अदालत का जवाब
दिल्ली पुलिस ने इस फैसले का विरोध किया था. उनका कहना था कि जिन लोगों ने विदेशी नागरिकों को पनाह दी, उन्होंने कोविड गाइडलाइंस का उल्लंघन किया और ऐसे लोगों को अपने घरों में छिपाया जो मरकज कार्यक्रम में शामिल हुए थे. लेकिन हाईकोर्ट ने साफ कहा कि यह आरोप कानूनी कसौटी पर टिक नहीं पाता.
कानून की धाराएं, लेकिन बिना साक्ष्य
इन नागरिकों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (सरकारी आदेश की अवहेलना), धारा 269 (संक्रमण फैलाने की आशंका वाला लापरवाह कृत्य) समेत अन्य धाराओं में केस दर्ज किया गया था. लेकिन अदालत के सामने न तो कोई मेडिकल रिपोर्ट थी, न ही कोई ऐसा दस्तावेज जिससे साबित हो कि इन लोगों ने कोई अपराध किया.
याचिकाकर्ताओं की दलील का असर
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वकील आशिमा मंडला ने कोर्ट को बताया कि ये केस सिर्फ इस आधार पर दर्ज किए गए कि उनके घरों या मस्जिदों में विदेशी लोग मौजूद थे. ये लोग कौन थे, कहां से आए थे, या उनकी मेडिकल स्थिति क्या थी, इसका कोई रिकॉर्ड चार्जशीट में नहीं था. अदालत ने माना कि एफआईआर में जो बातें कही गईं, वो कानूनी कार्रवाई लायक नहीं थीं.
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