नई दिल्ली: भारतीय सुरक्षा ताकतों के लिए एक प्रतीक्षित मोड़ आने वाला है. रक्षा अनुसंधान व विकास संगठन (DRDO) द्वारा विकसित नया हल्का टैंक “जोरावर” इस शीत ऋतु में आर्मी को दिए जाने की तैयारी में है. हालाँकि इसका उपयोग‑परख (यूजर ट्रायल) साल की शुरुआत में होना था, पर परीक्षण के दौरान कुछ तकनीकी व डिज़ाइन समायोजनों की आवश्यकता देखकर डिफेन्स वैज्ञानिकों ने उसे और परिष्कृत किया और अब पहली इकाइयाँ तैयार हैं. सूत्रों के अनुसार एक टैंक पूरा हो चुका है और दूसरा अंतिम चरण में है; दोनों को सर्दियों में सेनाध्यक्षों को सौंप दिया जाएगा ताकि व्यापक यूजर‑ट्रायल के बाद बड़े पैमाने पर उत्पादन शुरू किया जा सके.
जोरावर में क्या है खास?
परीक्षण, समायोजन और आगे की राह
DRDO और सेना के बीच वर्षों से टैंक‑श्रेणी पर काम चल रहा है; इस साल की शुरुआत में यूजर‑ट्रायल के लिए जुताई हुई इकाइयां मिलनी थीं, लेकिन फील्ड‑रिव्यू में कुछ बदलाव सुझाए गए. उन सुझावों के आधार पर तकनीकी टीमों ने जरूरी संशोधन किए हैं- सस्पेंशन, पावर‑पैक/इंजन‑मैपिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स इंटरफेस और ड्रोन‑इंटीग्रेशन समेत कई उप-प्रणालियों में परफॉर्मेंस‑ट्यूनिंग की गई. अब दो प्रारम्भिक इकाइयों के साथ व्यापक यूजर‑ट्रायल होगा; ट्रायल सफल माने जाने पर रक्षा खरीद‑प्रक्रिया (procurement) के अगले चरण में डीआरडीओ‑आधारित/मौजूद निर्माता इकाइयों द्वारा पैमाने पर उत्पादन शुरू हो सकेगा.
नाग‑मार्क 2 और स्वदेशी क्षमता
लाइट‑टैंक पर नाग‑एमके‑2 जैसी तीसरी‑पीढ़ी की फायर‑एंड‑फॉरगेट एंटी‑टैंक गाइडेड मिसाइल का समेकन योजनाबद्ध है. नाग‑एमके‑2 का विकास भी DRDO के भीतर हुआ; इसके फील्ड‑ट्रायल पहले ही सफल घोषित किए जा चुके हैं. टैंक‑आधारित ATGM विकल्प जोड़ने से सशस्त्र वाहन को रूढ़िवादी टैंक तोप से परे स्टैंड‑ऑफ एंटी‑आर्मर क्षमता मिल जाएगी, विशेषकर ऊंचे इलाकों व कठिन भू‑भाग में, जहाँ गतिशीलता और लक्ष्य‑छिपकपन बहुत मायने रखते हैं.
किन परिस्थितियों में लाइट‑टैंक महत्वपूर्ण
पिछले वर्षों में वास्तविक संघर्ष अनुभवों से सेना ने सीखा कि पारंपरिक मेन‑बिट स्ट्राइक टैंकों (T‑72/T‑90 आदि) का उपयोग हर इलाके में व्यावहारिक नहीं है. खासकर ऊँचे हिमालयी क्षेत्रों, दुर्गम पहाड़ी इलाकों और कुछ द्वीपीय/आइलेट टेरिटरीज़ में भारी टैंकों की गतिशीलता सीमित रहती है, वजन, ट्रांसपोर्ट‑लॉजिस्टिक्स और भूमि‑सतह की बाधाएँ उनके सामने बड़ी चुनौतियाँ बनती हैं. इसी अंतर से प्रेरित होकर हल्के, कम वजन वाले, अधिक तैरने योग्य/लॉजिस्टिक‑फ्रेंडली प्लेटफॉर्म की माँग उभरकर आई.
उपयोग‑क्षेत्र में शामिल हैं:
चीन सीमा पर प्रासंगिकता और सीख
2020 के बाद से एलएसी (लाइन‑ऑफ‑एक्चुअल कंट्रोल) पर जो गतिरोध और गतिशीलताएँ देखी गईं, उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि कितनी बार हल्के, जल्दी‑तैनात होने वाले प्लेटफ़ॉर्म की आवश्यकता पड़ती है. उदाहरण के तौर पर पैंगोंग झील क्षेत्र में ऊँची चोटियों पर काबिज़ी और गतिशीलता ने ही सामरिक लाभ दिलाया. भारी मेन‑बेट टैंक भले ही अग्नेय‑शक्ति रखें, पर उच्च‑ऊँचाई और मुश्किल भूभाग में उनकी प्रभावशीलता और पहुंच सीमित होती है, यही वह जगह है जहां जोरावर जैसे हल्के टैंक उपयोगी साबित हो सकते हैं.
डिजाइन‑चुनौतियाँ और तैनाती पर विचार
हल्का टैंक बनाते समय कई तकनीकी समझौतों की जरूरत पड़ती है: अधिक गतिशीलता और कम वजन हासिल करने के लिए बख़्तरबन्दी में कटौती करनी पड़ती है; वहीं सुरक्षा और आग‑सक्षमता से समझौता नहीं हो सकता. इसलिए डिजाइनर अक्सर मॉड्यूलर बख़्तरबन्दी, उन्नत मिश्र धातु या कम्पोजिट्स, सक्रिय प्रोटेक्शन सिस्टम (APS) के विकल्प और बेहतर शक्ति‑वज़न अनुपात वाले इंजन पर काम करते हैं. लॉजिस्टिक्स‑फ्रेंडली सुविधाएँ जैसे एयर‑ट्रांसपोर्टेबिलिटी (हवाई परिवहन योग्य होना), फ्लैट‑ट्रैक/रोड‑ट्रांसपोर्ट की सहजता, और फील्ड‑रखरखाव की सुगमता भी प्राथमिकता रहेगी.
सेना के अभ्यास और यूजर‑फीडबैक के बाद ही यह स्पष्ट होगा कि जोरावर के किस संस्करण को किन क्षमताओं के साथ किस सेक्टर में प्राथमिकता दी जाएगी- नॉर्थ (हिमालयीन) सेक्टर, पूर्वी सीमाएँ या द्वीपीय/किनारों के लिए.
उत्पादन‑परिदृश्य और आत्मनिर्भरता
यदि यूजर‑ट्रायल सफल रहा और सेना से हरी झंडी मिली, तो आगे बड़ी मात्रा में विनिर्माण के चरण में प्रवेश किया जाएगा. इससे सिर्फ रणनीतिक क्षमताएँ ही नहीं बढ़ेंगी, बल्कि घरेलू रक्षा उद्योग को एक बड़ा ठेला भी मिलेगा- स्पेयर‑पार्ट्स, उप‑सिस्टम, लोकल सप्लाय‑चेन और तकनीकी कौशल सब पर असर पड़ेगा. यह आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन की दिशा में एक और कदम माना जा रहा है, जिसमें DRDO‑इनोवेशन और भारतीय विनिर्माताओं की भागीदारी महत्त्वपूर्ण होगी.
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