दो दशकों पहले, विद्या बालन ने परिणीता (2005) से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में अपने अभिनय की शुरुआत की थी, और तभी से उन्होंने इस धारणा को चुनौती दी कि "लीडिंग लेडी" का मतलब सिर्फ शोपीस होना है. उनके पहले ही किरदार में एक ऐसी स्त्री नजर आई जो गरिमा, आत्मबल और सच्चाई का प्रतीक थी—ऐसी छवि जो उस वक्त बॉलीवुड की मुख्यधारा में कम ही दिखती थी.
नायिका की परिभाषा को नई दिशा दी
उस दौर में जब अधिकतर कहानियां पुरुष किरदारों के इर्द-गिर्द घूमती थीं, विद्या ने एक अलग राह चुनी—ऐसी भूमिकाएं जिनमें महिलाएं सिर्फ प्रेमिका या सहायक पात्र नहीं थीं, बल्कि पूरी कहानी की आत्मा थीं. द डर्टी पिक्चर में उनका बिंदास अंदाज हो, कहानी में उनकी चुपचाप चलती खोज, या शेरनी में उनकी दृढ़ता से भरी संवेदनशीलता—हर बार उन्होंने नायिका की परिभाषा को नई दिशा दी.
विद्या की खासियत सिर्फ उनके अभिनय कौशल में नहीं, बल्कि उनकी सोच में है—जो यह मानती है कि सिनेमा में किसी महिला की पहचान सिर्फ उसकी सुंदरता या कमाई से नहीं, बल्कि उन कहानियों से बनती है जो वह साहस के साथ कहती है.
आज, बीस साल बाद भी, विद्या बालन भारतीय सिनेमा में दृढ़ता, प्रतिभा और आत्म-विश्वास की पहचान बनी हुई हैं. उनका सफर सिर्फ स्टारडम की कहानी नहीं है, बल्कि एक ऐसी प्रेरणा है जो सिखाती है कि जब कोई अपने नियम खुद बनाता है, तो वही असली जीत होती है.
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