नई दिल्ली: ईरान की परमाणु प्रतिष्ठानों पर अमेरिका द्वारा किए गए सैन्य हमले ने एक बार फिर वैश्विक राजनीति को दो ध्रुवों में बांट दिया है. ऑपरेशन मिडनाइट हैमर के नाम से चलाए गए इस हमले में अमेरिका ने अत्याधुनिक B-2 स्टील्थ बॉम्बर्स और टोमाहॉक मिसाइलों की मदद से फोर्डो, नतांज और इस्फहान जैसे प्रमुख न्यूक्लियर ठिकानों को निशाना बनाया.
अमेरिका का दावा है कि यह कदम "वैश्विक शांति और सुरक्षा" के नाम पर उठाया गया है — मगर इतिहास और वर्तमान हालात मिलाकर यह सवाल खड़ा करते हैं: क्या यह हमला केवल परमाणु हथियारों के डर से प्रेरित था, या इसके पीछे गहरी भू-राजनीतिक रणनीति है?
परमाणु हथियारों का डर, कितना तर्कसंगत?
अमेरिका और इज़राइल, दोनों ही लंबे समय से ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को लेकर चिंतित रहे हैं. इज़राइल ने बार-बार दावा किया है कि ईरान यदि परमाणु बम बना लेता है, तो यह पूरे मध्य-पूर्व के लिए खतरे की घंटी होगा.
हालांकि, IAEA (अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी) के हालिया बयान ने इस हमले की नैतिक वैधता पर सवाल खड़े कर दिए हैं. एजेंसी के प्रमुख राफेल ग्रॉसी ने साफ कहा कि ईरान के पास परमाणु हथियार निर्माण की कोई पुष्टि नहीं है. उनका यह भी कहना था कि हमलों से फोर्डो जैसे संवेदनशील स्थलों पर भारी क्षति की आशंका है, जिससे वैश्विक परमाणु निगरानी व्यवस्था भी खतरे में पड़ सकती है.
क्या ईरान दूसरा इराक बनने जा रहा है?
इतिहास गवाह है कि 2003 में अमेरिका ने इराक पर इसी प्रकार का आरोप लगाया था कि सद्दाम हुसैन के पास जनसंहार के हथियार (WMDs) हैं. यह एक बड़ा सैन्य अभियान बना, जिससे पूरा देश तबाह हो गया. लेकिन वर्षों बाद भी अमेरिका और उसके सहयोगी इराक में WMDs का कोई सबूत नहीं खोज पाए.
आज वही कहानी ईरान के साथ दोहराई जा रही है. एक ओर IAEA कहता है कि ईरान हथियार नहीं बना रहा, दूसरी ओर अमेरिका-इज़राइल दोनों एक्शन में हैं. अंतर यह है कि इराक के पास तब सैन्य प्रतिक्रिया की क्षमता नहीं थी, जबकि ईरान एक क्षेत्रीय ताकत है और उसके समर्थन में अब पाकिस्तान, तुर्की, कतर, चीन और रूस जैसे देश खुलकर खड़े हो रहे हैं.
अमेरिका क्या चाहता है?
अमेरिका का दावा है कि उसका उद्देश्य सिर्फ परमाणु प्रसार को रोकना है. मगर विश्लेषकों का मानना है कि यह सिर्फ आधा सच है. ईरान की सैन्य और ऊर्जा नीति, खासकर चीन और रूस के साथ बढ़ते रिश्ते, अमेरिका के लिए एक रणनीतिक चुनौती हैं.
ईरान की चाबहार पोर्ट परियोजना, BRICS में शामिल होने की इच्छा, और पेट्रोयुआन (चीनी मुद्रा में तेल व्यापार) को अपनाने की योजना, ये सभी ऐसे कदम हैं जो अमेरिकी वर्चस्व को सीधी चुनौती देते हैं.
अमेरिका, इज़राइल के साथ मिलकर शायद यह सुनिश्चित करना चाहता है कि ईरान इस कद तक न पहुंचे जहाँ वह वैश्विक शक्ति समीकरणों में निर्णायक भूमिका निभा सके.
ऑपरेशन मिडनाइट हैमर
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के अनुसार, 22 जून की रात शुरू हुआ यह मिशन पूरी तरह सफल रहा. इसमें 125 विमान, 7 स्टील्थ बॉम्बर्स और 30 क्रूज मिसाइलों का समन्वित उपयोग हुआ. यह हमला इतनी गोपनीयता से हुआ कि ईरान की मिसाइल डिफेंस भी सक्रिय नहीं हो सकी.
लेकिन कूटनीतिक स्तर पर यह अमेरिका के लिए जीत नहीं बल्कि नई चुनौतियों की शुरुआत हो सकती है. इस समय अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका की एकतरफा कार्रवाइयों पर सवाल उठाए जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र में रूस और चीन पहले ही इस कार्रवाई की निंदा कर चुके हैं.
क्या विकल्प थे?
विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका चाहता तो इस संकट को कूटनीतिक ढंग से सुलझा सकता था. 2015 का ईरान परमाणु समझौता (JCPOA), जो ट्रंप प्रशासन द्वारा तोड़ दिया गया था, फिर से सक्रिय किया जा सकता था. मगर बजाय इसके, अमेरिका ने सैन्य रास्ता चुना, जिससे विश्व युद्ध की आशंका पैदा हो गई है.
ये भी पढ़ें- 'जिस तरह भारत ने पाकिस्तान पर किया, उसी तरह...' बिलावल ने ऑपरेशन सिंदूर से की इजराइली हमलों की तुलना