नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक अहम फैसले में कहा कि शादीशुदा रिश्ते में यदि एक पक्ष की बिना जानकारी के कॉल रिकॉर्ड की जाती है और उसे तलाक जैसे मामलों में कोर्ट में पेश किया जाता है, तो इसे गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता. कोर्ट के मुताबिक, वैवाहिक जीवन में निजता का अधिकार सीमित होता है, और अगर रिश्ता इतना बिगड़ जाए कि जासूसी की नौबत आ जाए, तो माना जा सकता है कि वह पहले ही टूट चुका है.
निजता बनाम न्याय पर सुप्रीम कोर्ट का संतुलन
पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने इससे पहले कहा था कि पत्नी की कॉल रिकॉर्डिंग उसकी निजता का उल्लंघन है और इसे कोर्ट में सबूत के तौर पर मान्यता नहीं दी जा सकती. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे, ने इस फैसले को पलटते हुए कहा, "यह कॉल रिकॉर्डिंग धारा 122 के दायरे में आती है, जो पति-पत्नी के बीच की गोपनीय बातचीत को संरक्षित करती है, लेकिन यह अनुच्छेद 21 के तहत संवैधानिक निजता के अधिकार का मामला नहीं बनता."
मामले की पृष्ठभूमि
यह केस पंजाब के बठिंडा जिले की फैमिली कोर्ट से शुरू हुआ, जहां एक पति ने अपनी पत्नी से हुई बातचीत की रिकॉर्डिंग पेश करते हुए तलाक की मांग की थी. फैमिली कोर्ट ने रिकॉर्डिंग को वैध सबूत माना, लेकिन पत्नी ने इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी. हाईकोर्ट ने निजता के उल्लंघन का हवाला देते हुए इसे खारिज कर दिया था.
पति की दलील- जब गवाह न हों तब तकनीक जरूरी
पति की ओर से कोर्ट में यह तर्क दिया गया कि कई वैवाहिक विवादों में कोई तीसरा गवाह नहीं होता, और ऐसे में तकनीकी माध्यमों से जुटाए गए सबूत आवश्यक हो जाते हैं. उन्होंने कहा कि निजता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है और उसे अन्य संवैधानिक अधिकारों और न्यायिक आवश्यकता के अनुरूप संतुलित किया जाना चाहिए.
दिल्ली हाईकोर्ट का संदेश – 'पत्नी कोई संपत्ति नहीं'
इस फैसले से इतर, दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में एक अन्य फैसले में पति द्वारा लगाए गए व्यभिचार (एडल्टरी) के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि आज के समय में पत्नी को पति की 'संपत्ति' मानना पूरी तरह असंवैधानिक है.
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने कहा, "यह मानसिकता महाभारत काल से चली आ रही है जब युधिष्ठिर ने द्रौपदी को जुए में दांव पर लगा दिया था. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने IPC की धारा 497 को खत्म कर यह स्पष्ट कर दिया है कि यह पितृसत्तात्मक सोच अब स्वीकार्य नहीं."
निजता और समानता, दोनों की रक्षा ज़रूरी
सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट के ये दोनों फैसले संकेत देते हैं कि आधुनिक भारत की न्यायपालिका वैवाहिक रिश्तों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता, पारदर्शिता और संवैधानिक अधिकारों के संतुलन से देखती है. जहां एक ओर निजता का सम्मान ज़रूरी है, वहीं दूसरी ओर न्याय की प्रक्रिया में सच को सामने लाने के लिए कभी-कभी सीमाएं तय करनी पड़ती हैं.
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