भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक और रणनीतिक रिश्तों में पिछले कुछ वर्षों में काफी नजदीकियां आई हैं, लेकिन रूस से भारत की पारंपरिक सैन्य साझेदारी अमेरिका की आंखों में लगातार खटकती रही है. हाल ही में अमेरिका के वाणिज्य मंत्री होवार्ड लुटनिक ने भारत को एक बार फिर रूस से हथियार खरीदने को लेकर सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई है. उन्होंने यहां तक कहा कि यह अमेरिका को "चिढ़ाने जैसा" है.
रूस से डिफेंस डील पर बिफरे लुटनिक
लुटनिक ने भारत की रूस से रक्षा खरीद को लेकर न सिर्फ नाराजगी जताई, बल्कि ब्रिक्स समूह को लेकर भी भारत की भूमिका पर सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि ब्रिक्स डॉलर के वैश्विक प्रभुत्व को चुनौती देता है, और भारत का इसका समर्थन करना अमेरिकी हितों के खिलाफ है.
अमेरिका को याद दिलाया इतिहास
रक्षा मामलों के विशेषज्ञों ने लुटनिक की टिप्पणी को भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप बताया है. उन्होंने कहा कि भारत ने रूस (पहले सोवियत संघ) से हथियार खरीदने का निर्णय तब लिया था जब पश्चिमी देश उसे अत्याधुनिक हथियार देने को तैयार नहीं थे. रूस ने न सिर्फ भारत को तकनीक दी, बल्कि सबमरीन से लेकर ब्रह्मोस मिसाइल और एस-400 जैसे सिस्टम भी उपलब्ध कराए—बिना शर्तों के.
अमेरिका पर दोहरे मापदंड का आरोप
विशेषज्ञों ने अमेरिका को आइना दिखाते हुए याद दिलाया कि वही अमेरिका पाकिस्तान को एफ-16 जैसे फाइटर जेट देता रहा है—वो भी ऐसे समय में जब पाकिस्तान खुलेआम आतंकवाद को समर्थन दे रहा था. भारत ने इसका विरोध भी किया, लेकिन अमेरिका ने इसे नजरअंदाज कर दिया.
इन सौदों पर क्यों चिढ़ है?
भारत ने रूस से S-400 डिफेंस सिस्टम खरीदा जो ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तानी मिसाइल हमलों को नाकाम करने में मददगार रहा. वहीं ब्रह्मोस मिसाइल, जो भारत और रूस की संयुक्त परियोजना है, अब भारत की तीनों सेनाओं की रीढ़ बन चुकी है. अमेरिका की ओर से इन सौदों पर बार-बार आपत्ति जताना रणनीतिक तंगदिली का संकेत माना जा रहा है.
'डील सिर्फ पैसे की नहीं, भरोसे की भी होती है'
विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया कि अमेरिका द्वारा हथियारों पर लगाए गए कई शर्तें भारत के आत्मनिर्णय पर असर डालती हैं. वहीं रूस से मिलने वाले हथियार बिना राजनैतिक दबाव के होते हैं, और यह भारत को अपनी विदेश नीति में स्वतंत्रता बनाए रखने की अनुमति देते हैं.
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