नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव का दौर खत्म हो लगया है. पीएम मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए सत्ता में वापसी की है. हालांकि इस बार इनको बहुमत की सरकार बनाने के लिए एनडीए गठबंधन का सराहा लेना पड़ा और नरेंद्र मोदी लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे. सात चरणों में हुए चुनाव के बीच कई बार बीजेपी और आरएसएस को लेकर कई खबरें मीडिया की सुर्खियां बनी. कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी और आरएसएस के बीच सबकुछ ठीक नहीं है. कभी सत्ता पर काबिज होने के लिए पार्टी का सूत्रधार बने राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से भाजपा दूरी बनाने की कोशिश कर रही है. इसी मुद्दे पर भारत 24 के सीईओ एवं एडिटर एंड चीफ जंगदीश चंद्रा से खास बातचीत की गई. बहुप्रतीक्षित शो ‘THE JC SHOW’ में जगदीश चंद्रा ने बीजेपी और आरएसएस के रिश्तों के बारे में विस्तार से बात की.
सवाल- वो कौन से कारण रहे कि जो बीजेपी की लीडरशीप है, उसको लेकर मोहन भागवत के मन में निराशा झलक कर सामने आई है और उन्होंने क्यों अपनी बात को करने के लिए पब्लिक प्लेटफॉर्म को चुना?
जवाब- आरएसएस को लगता है कि पिछले 10 वर्षों में उसकी रिकॉर्गेनेशन और पॉवर घटी है. पॉवर सेंटर नागपुर से शिफ्ट होकर अहमदाबाद में चला गया है. बीजेपी मोदी के नेतृत्व में जितना प्रभावशाली ढंग से काम कर रही है, कहीं न कहीं आरएसएस भाजपा के इस प्रगति के प्रति सहज नहीं दिखाई देता है. इस लिए आरएसएस को ऐसा लगता है कि रिकॉर्गेनेशन शिफ्ट हो रहा है और हमारी वैल्यू इस 10 साल में कम हो रही है.
लोकसभा में टिकट के बंटवारे पर आरएसएस हुआ नजरअंदाज
दूसरा बड़ा कारण है कि आरएसएस को ऐसा लगता है कि लोकसभा चुनाव में जो टिकटों का बंटवारा हुआ है. इसमें उनसे ज्यादा बात नहीं हुई, शायद यूपी की कुछ सीटों जैसे सुल्तानपुर, कानपुर और अवध बेल्ट में उन्होंने (आरएसएस) कुछ नाम दिए थे. लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई और नामों को स्वीकार्य नहीं किया गया. इसके आरएसएस का मूड बदला और ऐसा माना जा रहा है कि इस चुनाव में भाजपा जो 240 सीटों पर सिमटी है, इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि बीजेपी कार्यकर्ताओं के साथ आरएसएस कार्यकर्ताओं ने भी उस सीमा तक प्रचार नहीं किया जैसे, वो पहले की चुनावों में करते थे. जिसके परिणामस्वरूप भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा.
इसपर बड़ा सवाल ये है कि क्या आरएसएस की निराशा इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि संगठन का दत्तक पुत्र कहिए या मानस पुत्र कहिए या उनका डीएनए जो भाजपा है, उसी को नुकसान पहुंचाएंगे. चुनाव में आरएसएस कार्यकर्ताओं का एक्टिव रोल प्ले नहीं करना एक गंभीर संकेत है. इसपर लीडरशिप को चर्चा किया जाना आवश्यक है.
चुनाव के बाद मंत्रिमंडल पर बात फंसी
चुनाव के बाद जब मंत्रिमंडल की बात आई तो फिर ये सुना गया कि प्रॉपर बातचीत नहीं हुई. मैने सुना कि अरुण कुमार ने बोला जब हमारी सुननी नहीं है तो पूछते क्यों हो? इसका परिणाम ये हुआ है कि जब शपथ ग्रहण समारोह हुआ आरएसएस का कोई बड़ा लीडर वहां नहीं पहुंचा. ये कितने आश्चर्य की बात है कि जिसको आपक दत्तक पुत्र कहते हैं उसका राज आ रहा है, तीसरी बार भाजपा सत्ता में आ रही है और आरएसएस वहां पर नहीं है.
मेरी एक बड़े नेता से कल बात हुई, मैने पूछा क्या हो रहा इसमें, तो उन्होंने कहा कि सब ठीक है, सब बढ़ियां नहीं है.
लेकिन सब बढ़ियां नहीं है, सब ठीक नहीं है. आगे चुनाव है, ऐसा नहीं चल सकता कि आरएसएस महत्वपूर्ण रोल नहीं प्ले करे.
राममंदिर का राजनीतिकरण बना मुद्दा
इसके बाद राम मंदिर से जुड़ा हुआ सवाल आया. मैने सुना इसको लेकर भी मदभेद हुए. आरएसएस का कहना था कि इसका राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए था, लेकिन नरेंद्र मोदी, जेपी नड्डा और अमित शाह सन्यासी तो नहीं है न, वो ऐसे मुद्दों से जनमानस क्रिएट करेंगे.
दूसरा राम मंदिर के जो ट्रस्टी हैं चंपत राय उनसे कुछ हिसाब की बात थी, इन घटनाओं के बाद से ऐसा सुना है कि बीजेपी ने राम मंदिर प्रोजेक्ट पर आरएसएस से कंसल्ट करना बंद कर दिया.
दूसरा आरएसएस का मानना है कि व्यक्तिपरक राजनीति नहीं होनी चाहिए, लेकिन बीजेपी का मानना है कि नेतृत्व करने के लिए एक फेस चाहिए. भाजपा के पास नरेंद्र मोदी का फेस है. इस सब बातों के कारण निराशा भाव आता है. सारे झगड़ें पर लॉजिकल लेवल पर जेपी नड्डा और मोहन भागवत बात करना चाहते हैं. भाजपा और आरएसएस के रोल पर बात करनी चाहिए.
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