हरियाणा और जम्मू-कश्मीर चुनाव 2024 : द रियल गेम चेंजर- संपूर्ण विश्लेषण, 'The JC Show'

    इस शो में भारत 24 के सीईओ और एडिटर-इन-चीफ डॉ जगदीश चंद्र बता रहे हैं कि कैसे नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकार अमित शाह हरियाणा चुनाव में रियल गेम चेंजर रहे हैं.

    हरियाणा और जम्मू-कश्मीर चुनाव 2024 : द रियल गेम चेंजर- संपूर्ण विश्लेषण, 'The JC Show'
    हरियाणा, जम्मू-कश्मीर चुनाव में द रियल गेंम चेंजर का पोस्टर | Bharat 24

    नई दिल्ली : भारत 24 के सीईओ और एडिटर इन चीफ डॉ. जगदीश चंद्र के 'The JC Show' का लाखों-करोड़ों दर्शकों को इंतजार रहता है. इस बार The JC Show हरियाणा और जम्मू एंड कश्मीर चुनावों के आए नतीजों को लेकर है. इस बार इस शो का नाम है The Real Game Changer. आइए जानते हैं इस शो में Man of Prediction कहे जाने वाले डॉ. जगदीश चंद्र का विश्लेषण.

    सवाल- द रियल गेम चेंजर प्रधानमंत्री मोदी की फोटो के साथ इसके मायने क्या है?

    भारत 24 के सीईओ और एडिटर इन चीफ डॉ जगदीश चंद्र ने कहा, "इसका एक ही मैसेज है कि मोदी है तो मुमकिन है. मोदी ब्रांड अब भी मजबूत है और पावरफुल है. टाइगर अभी जिंदा है, जिसे हम कह सकते हैं.

    उन्होंने कहा कि 15 दिन पहले क्या हालात थे बाजी हाथ से निकल रही थी नरेंद्र मोदी को फीडबैक मिला हरियाणा हाथ से जा सकता है. सभी पॉलिटिकल एजेंसीज गवर्नमेंट एजेंसीज सबका एक ही कहना था दबी जबान में हरियाणा टफ है. नरेंद्र मोदी ने कमान अपने हाथ में ली. अमित शाह को आगे किया. उन्हें फ्री हैंड दिया. उन्होंने रिवर्स पोलराइजेशन किया. जो गरीब समुदाय हैं, ओबीसी हैं उनमें सेंस ऑफ फियर क्रिएट किया और कुल मिलाकर जो है वोट्स को कंसोलिडेट किया. जाट वर्सेस बाकी सभी 36 कम में एक कौम एक तरफ बाकी 35 कौम एक तरफ. उसका परिणाम आज आपके सामने है और यही नरेंद्र मोदी की रणनीति की जीत है.

    यह पहली बार हुआ है कि तीसरी बार एक सरकार लगातार वहां पे रिपीट हुई है और 240 का जो नेगेटिव परसेप्शन था एक झटके में उसको पलट के रख दिया. आज लोग 240 की बात नहीं कर रहे हैं. जो लोग कह रहे थे कि हरियाणा हारेंगे और उसके बाद झारखंड और महाराष्ट्र भी हारेंगे, वह सारा परसेप्शन एकदम से पलट कर रख दिया और आज लोग बात कर रहे हैं न केवल झारखंड और महाराष्ट्र जीतने की, बल्कि 51 जो उपचुनाव होने हैं नवंबर के अंदर और तीन एमपी के जो बाय इलेक्शन होने हैं उसे जीतने की बात कह रहे हैं.

    और तो और 2029 की बात भाजपा के लोग फिर से कर रहे हैं. भाजपा हेड क्वार्टर्स पर क्या उत्साह था. वर्कर्स को एक व्यक्ति ने एक दिन में एकदम से बहादुर और शेर की तरह फिर से खड़ा कर दिया. इसे कहते हैं रियल गेम चेंजर.

    डॉ चंद्र ने कहा, हालात यहां तक थे कि खुद सीएम सैनी अपनी हार मान बैठे थे, वो बयान तैयार करके बैठे थे कि जब हार डिक्लेयर होगी तो मैं घोषणा करूंगा कि इस हार के लिए मैं जिम्मेदार हूं, केंद्रीय नेतृत्व जिम्मेदार नहीं.

    यहां तक हालात बदले एकदम से कांग्रेस की बात हो रही थी 67 और 17 की फिर 43 43 पर आए फिर 51 पर आ गए. कांग्रेस के दफ्तर में मिठाई बंटने लगी, ढोल-नगाड़े बजने लग गए. 24 अकबर रोड पर भी. लेकिन सारा रिवर्स हो गया. सारे एग्जिट पोल एकदम से पलट गए और आखिर ये हुआ कैसे.

    और ये पहली बार नहीं हुआ है पिछली बार विधानसभा चुनाव के समय छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में यही रिपीट हुआ था. इस बार झटका जरा ज्यादा बड़ा है क्योंकि 13 के 13 जो थे एग्जिट पोल वो सारे के सारे कांग्रेस को क्लियर मेजॉरिटी 50-51 सीट के साथ में 55 सीट के साथ में बता रहे थे और हुआ रिवर्स.

    नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भी इस तरीके के चमत्कार की उम्मीद थी, लेकिन मन में थोड़ा सा भाव तो था कि कहीं हार सकते हैं क्योंकि सारा फीडबैक इस तरह का था इसलिए कमान उन्होंने अपने हाथ में ली थी.

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    सवाल- हरियाणा चुनाव में आए नतीजों का एक मैसेज यह भी माना जा रहा है कि नरेंद्र मोदी अमित शाह जहां चाहे वहां कमल खिला सकते हैं वाकई खिला सकते हैं?

    इसके जवाब में डॉ चंद्र ने कहा कि आप देखिए ना पिछला चुनाव जो हुआ राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में, लोकल लीडरशिप का कोई कंट्रीब्यूशन नहीं था. कोई रोल नहीं था. कोई कंसल्टेशन नहीं था. कोई कंट्रीब्यूशन नहीं था. एक झटके में वहां सरकार बनाई, जो कि मिरेकल है और कारण इसका क्या है इसका कारण य कि नरेंद्र मोदी का लोकप्रिय चेहरा और अमित शाह की स्ट्रैटजी यूनीक है. कम्युनिकेशन अद्भुत है. इसलिए मैं भी कह सकता हूं आपके साथ-साथ कि व जहां चाहे वहां कमल खिला सकते हैं.हरियाणा में करके दिखा दिया

    सवाल- हरियाणा में 90 सीटों वाली विधानसभा है पर यह कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी अमित शाह 90 सीटों पर नहीं लड़ रहे थे 130 सीटों पर लड़ रहे थे इसका क्या मतलब है?

    डॉ चंद्र ने कहा, ब्रिलियंट. ये उनकी स्ट्रेटेजी है. लड़े तो 89 पर. एक सीट निर्दलीय के लिए छोड़ दी थी. उन्होंने 30 एक्स्ट्रा उम्मीदवार खड़े किए थे. वह एक-एक सीट का गणित बैठाते हैं. अमित शाह का गणित कांग्रेस के पास नहीं है.

    रात को 3:00 बजे तक काम करने की क्षमता कांग्रेस के पास नहीं है जो अमित शाह के पास है तो 30 लोगों का उन्होंने अलग-अलग प्लान किया था. कि यहां निर्दलीय खड़ा होगा, यहां जेजेपी के खिलाफ खड़ा होगा. यहां जाट उम्मीदवार खड़ा होगा. यहां ओबीसी के खिलाफ ये आदमी खड़ा होगा. वो सारी स्ट्रेटजी थी. किसी तरह से ऊपर-नीचे हो तो 10-15 निर्दलीय आ जाएं और राजस्थान के अशोक गहलोत मॉडल की तरह सरकार को बाहर से समर्थन दें. तो वाकई में वे 130-35 सीट पर लड़ रहे थे.

    सवाल- एक अलग तरीके से भी देखा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी शासन के 23 साल पूरे कर चुके हैं और हरियाणा की जनता ने हरियाणा में चुनाव जिता कर एक गिफ्ट दिया है उनको?

    "ऑफकोर्स कह सकते हो. ये इससे बड़ा गिफ्ट उनके लिए हो नहीं सकता. ऐसी गिफ्ट जो पार्टी के लिए है, उनके कार्यकर्ताओं के लिए है. पूरे कैडर के लिए है. नरेंद्र मोदी सरकार पहले 100 दिन की उपलब्धियों का भी असर हुआ है."

    इसे हरियाणा जनता का यह बिगेस्ट गिफ्ट नरेंद्र मोदी को है.

    सवाल- क्या यह सही है कि हरियाणा का चुनाव मैदान में नहीं, बल्कि अमित शाह की शतरंज की मेज पर लड़ा गया और साथ ही यह बीजेपी की अप्रत्याशित जीत का कारण क्या रहा?

    डॉ चंद्र ने कहा तो बेसिकली शतरंज की जो विसात है अमित शाह के घर पर बिछाई गई. इसीलिए इस सारे चुनाव का अमित शाह को द मैन ऑफ द मैच कहते हैं. मतलब ऑपरेशनल यश जो अमित शाह के पास है. तो इसीलिए कहते हैं वह द हीरो ऑफ हरियाणा इलेक्शन रिजल्ट्स. उनकी माइक्रो मैनेजमेंट. रिसोर्सेस फाइनेंस और एकएक सीट पर फोकस करना. 30 आदमी एक्स्ट्रा खड़े किए. फील्ड में यह सारी स्ट्रेटजी थी. बड़ा कारण यह था और वो किसी तरह से कामयाब हो गए. इसके अंदर पूरे हरियाणा में मैसेज दिया कि- जाट वर्सेस नॉन जाट्स. आप यूं कहिए और जाट मार्शल कौम है. फिर पहलवान प्रचार में जुटे. लोगों में मैसेज गया कि पहलवान लोग हैं जाट हैं. पावरफुल लोग हैं तो दूसरी कम्युनिटी में क्या सेंस ऑफ फियर, एक तरह का सेंस ऑफ पोलराइजेशन क्रिएट हो गया, जिसे कहते हैं रिवर्स पोलराइजेशन. कुल मिलाकर सारा जो चुनाव है यह एक स्ट्रैटेजी पर आधारित था और बेसिकली डिवीजन ऑफ वोट्स पर आधारित था, जिसमें अमित शाह को सक्सेस मिली

    और यह कहा जा सकता है कांग्रेस की जो अंदरूनी लड़ाई थी, सैलजा फैक्टर था. उसे उन्होंने बहुत ब्रिलिएंटली एनकैश किया. प्राइम मिनिस्टर से भी कराया. खुद भी एनकैश किया तो पूरा पैकेज था. इस तरह का अमित शाह का एक मेजर रोल कहा जा सकता है और इस पैकेज के कारण से भाजपा जीती और एक पॉलिटिकल ऑब्जर्वर हैं मेरे मित्र विवेक, उनका कहना यह कि विक्ट्री का जो सबसे बड़ा कारण है, इन सबके साथ-साथ वह यह था कि यूनाइटेड बीजेपी वर्सेस डिवाइडेड कांग्रेस ये एक बहुत बड़ा कारण था. तो घूम फिर के बात वही है

    सवाल- आखिर मुख्यमंत्री पद के लिए नायब सिंह सैनी की चॉइस किसकी थी?

    उन्होंने इसके जवाब में कहा कि नायब सैनी को मनोहर लाल ने बच्चे की तरह उंगली पकड़ आगे बढ़ाया. उनके पसंद के थे. मनोहरलाल के रिश्ते प्राइम मिनिस्टर से बहुत पुराने हैं.

    उनको हटाना था एंटी एस्टेब्लिशमेंट फैक्टर का मैसेज ना जाए तो एक दिन बुला के पूछा कि किसे लाएं तो उन्होंने यही कहा होगा. ऐसा सुना है मैंने कि खट्टर ने उनका नाम सुझाया. फिर सहमति बनी अमित शाह के लेवल पर. नड्डा के लेवल पर और फिर इस तरह से वह मुख्यमंत्री बन गये. मोटे तौर पर ये कहा जा सकता है और उनका भाग्य था, जो मै पहले भी कहता रहा हूं जन्मपत्री. मुख्यमंत्री बनना लिखा था, एक नहीं दो बार. बेसिकली यह खट्टर की चॉइस थी. उनकी रिक्वेस्ट थी, जिसे प्राइम मिनिस्टर ने माना. अमित शाह, नड्डा ने समर्थन किया.

    सवाल- आज हरियाणा की जीत का श्रेय हर कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमित शाह, धर्मेंद्र प्रधान को दे रहे हैं तो इस पंक्ति में नायब सैनी कहां हैं?

    नायब सैनी विनम्र व्यक्ति हैं, जो मैंने कहा कि हाथ जोड़ के खड़े हुए हैं. सबके सामने, अमित शाह के सामने, नरेंद्र मोदी के सामने. आज प्राइम मिनिस्टर से मिले हैं. उनका आशीर्वाद लिया है. प्राइम मिनिस्टर ने शुभकामनाए दी हैं और कहा कि विकसित भारत में हरियाणा का जो है रोल है होना चाहिए और आप देखिए भाग्य के धनी हैं. एक तो सुबह 8:30 बजे वो बोरिया-बिस्तर बांधने की सोच रहे थे. मुख्यमंत्री निवास से हार दिख रही थी. वह साइलेंट परफॉर्मर हैं, पीछे रहेंगे और जो बड़े-बड़े लोगों की दौड़ है, इसमें वैसे भी क्या है कि पीछे रहना ही बुद्धिमता मानी जाती है.

    सवाल- गुजरात की तरह हरियाणा में भी चुनाव के कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री बदलना यह कारगर प्रयोग साबित हुआ?

    बीजेपी के लिए एब्सलूट ये नया ट्रेंड है. भाजपा का, नरेंद्र मोदी, अमित शाह का जो सक्सेस है न केवल हरियाणा, आप गुजरात से शुरू करिए देखिए आनंदी बेन पटेल थीं, तो विजय रूपाणी आए, फिर विजय रूपाणी को ऐन वक्त पे चेंज किया तो पटेल आए. पटेल सक्सेस हैं 182 के हाउस में 156 सीटें लेकर आए. आप उत्तराखंड देख लीजिए, वहां पर तीरथ की जगह धामी को लाए. यंग धामी 47 सीटें लाए और धामी अच्छा काम कर रहे हैं.

    एक कर्नाटक में जरूर कामयाबी नहीं मिली.

    सवाल- अब मंत्रिमंडल गठन में आखिर किसकी चलेगी?

    वैसे तो अब देखा जाए तो इसका गठन अमित शाह करेंगे, क्योंकि सारी बाजी उन्होंने पलटी है. ऐसा लगता है मुझे प्राइम मिनिस्टर लिस्ट लेंगे, फिर अमित शाह को देंगे. डिस्कशन के बाद फाइनल करेंगे. किसी व्यक्ति आपको एडजस्ट करना हो तो फिर नड्डा से बात हो जाएगी, तो घूम फिर के तो इसमें क्या है कि ज्यादा जो सेंट्रिक रोल है वो शायद अमित शाह का रहेगा.

    सवाल- क्या उपमुख्यमंत्री का पद भी हो सकता है, आजकल जिस तरह रहता है?

    हरियाणा में तो ऐसी रिक्वायरमेंट नहीं है. लेकिन यह तो वो स्ट्रेटजिस्ट लोग हैं. अमित शाह और बाकी लोग तय करेंगे. 

    सवाल- आखिर हरियाणा के इस पूरे चुनाव में धर्मेंद्र प्रधान, भजन लाल शर्मा, अर्जुन राम सतीश पुनिया और इसके साथ ही गजेंद्र सिंह शेखावत इनका रोल कैसा रहा, कैसे देखते हैं आप?

    देखिए रोल तो कई सारे लोगों का था. पहले मैं धर्मेंद्र प्रधान से बात शुरू करता हूं. वह तो लकी पार्टी ऑर्गेनाइजर हैं, जिस राज्य में उनको पार्टी भेजती है और सरकार बन जाती है वह ऐसे व्यक्ति हैं, जिसको प्राइम मिनिस्टर और अमित शाह दोनों का आशीर्वाद प्राप्त है.

    आप देखिए उड़ीसा में सरकार बना दी. यहां भी उनका मेजर कंट्रीब्यूशन यह था कि ओबीसी और दलित जो हैं खास करके ओबीसी और जो एससी हैं उनको हैंडल करना है तो पूरी जो जीटी रोड है, सदर्न हरियाणा है, वो सारा एरिया उनके पास था. तो उन्होने गांव-गांव जाकर छोटे-छोटे लोगों में जो ग्रुप्स हैं ओबीसी के अलग ग्रुप हैं. एससी के अलग ग्रुप हैं. उन सबसे मुलाकात की.

    भरोसा दिलाया राज्य की पूरी ओबीसी को और फिर हाई कमांड से भी कहलवाया कि नॉमिनी सैनी ही रहेंगे. मुख्यमंत्री यही बनेंगे, तो गलत मैसेज ना चला जाए तो एक रोल था उनका, तो ग्रास रूट पर उन्होंने वहां काम किया, जो सबके सामने दिखाई देता है.

    दूसरी बात गजेंद्र सिंह शेखावत की. ऑफकोर्स उससे पहले राजस्थान के चीफ मिनिस्टर भी गए तो वहां पर 6 सीटों पर गए. हरियाणा में पांच सीटें जीत गए. जम्मू भी गए थे. एक कलेक्टिव एफर्ट था गजेंद्र सिंह शेखावत का. वह हरियाणा में बहुत एक्टिव थे. 15 दिन तक लगातार रहे. सात लड़ाई पर उनका फोकस था और 100% विक्ट्री आई. शेखावत मंत्री के साथ साथ पिछले कुछ समय में टावरिंग पॉलिटिशियन के रूप में उभर के सामने आए हैं, दिल्ली में और जयपुर में.

    फिर अर्जुन मेघवाल भी गए थे. कुल मिलाकर राजस्थान पड़ोसी राज्य है हरियाणा का, तो इसलिए रेलीवेंट था. राजस्थान के लोगों का जाना और इन सब ने अच्छा काम किया वहां और

    सवाल- भजन लाल शर्मा भी बड़े उत्साहित कल नजर आए उनका रोल कैसा रहा? 

    मैंने कहा कि वह छह सीट पर गए 5 पर जीत गए. जम्मू भी गए थे, वहां कोई निर्दलीय जीता है. वह हर समय ऑन व्हील्स रहते हैं. कहीं भेज दो, कहीं लगा दो. तो मुख्यमंत्री वही कामयाब होता है योगी की तरह, जो ट्रेवल से संकोच नहीं करता, जिसके लिए डिस्टेंस आर ओनली साइकोलॉजिकल रहता है. कुछ लोग ट्रेवल से संकोच करते हैं. योगी को देखिए, महीने में 25 दिन बाहर रहते हैं तो भजनलाल शर्मा का भी ऐसा है, जनता जुड़े रहते हैं.

    सवाल- स्टार कैंपेनर की भूमिका में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भूमिका को हरियाणा चुनाव के नतीजों में आप कैसे देखते हैं?

    ऑफकोर्स योगी हरियाणा में स्टार कैंपेनर थे. कुल 14 स्थानों पर उन्होने सभाएं की, जिनमें से 9 स्थानों पर भाजपा के एमएलए जीत करके आए. स्ट्राइक रेट बहुत अच्छी थी उनकी और उनका फोकस एक ही बात पर था कि सारे हिंदुओं को एकजुट होकर राष्ट्र के लिए वोटिंग करना चाहिए. उन्होंने एक नया नैरेटिव सेट किया कि अगर बंटे तो कटेंगे. योगी से पहले भी आरएसएस चीफ मोहन भागवत भी ऐसा नैरेटिव सेट कर चुके हैं.

    सवाल- हरियाणा की राजनीति से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि सचमुच भाग्यशाली और हरियाणा के नए हीरो हैं मनोहर लाल. ऐसे क्यों कह रहे हैं लोग?

    वो यूं कह रहे हैं, एक तो उनका व्यक्ति उनका नॉमिनी उनका बच्चा कहिए या शिष्य सैनी वे दोबारा मुख्यमंत्री बन गये. दूसरा कि भाग्यशाली ऐसे हैं कि उनकी जो करनाल लोकसभा क्षेत्र है, वहां पर पांच असेंबली सारी जीत ली. मनोहरलाल के एरिया में बीजेपी ने पूरा का पूरा स्वीप किया. उनके लिए भाग्य की बात है. खुश होने की बात है.

    सवाल- हरियाणा का हिंदू मुस्लिम हिंसा वाला मेवात वाला हिस्सा, वहां बीजेपी ने मुस्लिम कार्ड भी चला था लेकिन क्या कारण कि व मुस्लिम कार्ड चल नहीं पाया?

    मेवात का एरिया राजस्थान से जुड़ा हुआ है. वहां स्ट्रांग मुस्लिम सेंटीमेंट है. हालांकि, बीजेपी ने एक्सपेरिमेंट किया. तीन में से दो सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए, फिर भी हार गए क्योंकि लोगों का झुकाव कांग्रेस के प्रति ज्यादा था.

    सवाल- मोटे तौर पर आखिर क्या रहे होंगे कांग्रेस की इस अप्रत्याशित हार के कारण?

    देखिए जो कारण नरेंद्र मोदी, अमित शाह की विक्ट्री के हैं तो देखा जाए वही कारण इनकी हार के हैं. लेकिन फिर भी एक जो सबसे बड़ी बात है कि अमित शाह का जो मैन टू मैन मैनेजमेंट था, जो रिवर्स पोलराइजेशन था जो मोबिलाइजेशन था ओबीसी में और दलित के अंदर. एक तो कारण ये रहा कि दलित खिसक गए थोड़ा सा कांग्रेस से. ओबीसी कांग्रेस से खिसक गए. साथ अंदरूनी गुटहबाडी. तीन पावर सेंटर हो गए थे हुड्डा अलग, सैलजा अलग और वो सुरजेवाला अलग. हालांकि सुरजेवाला का सारा ध्यान पुत्र पर आदित्य सुरजेवाला जो कि जीत गए.

    शिकायत तो नहीं है सुरजेवाला के खिलाफ, लेकिन सैलजा के खिलाफ ऑफकोर्स आई है और ऐन वक्त पर चुनाव के समय कहना सैलजा का कि मैं मुख्यमंत्री पद की दावेदार हूं. तब सोनिया गांधी ने बुलाया, समझाया. हालांकि हुड्डा ने मैच्योर पॉलिटिशियन की तरह कोई बयान नहीं दिया. उन्होंने कहा सबका हक है मुख्यमंत्री बनने का, जो पार्टी तय करेगी, जो विधायक तय करेंगे मुख्यमंत्री बन जाएगा. लेकिन तब तक अमित शाह इस मुद्दे को हाईजैक कर चुके थे.

    इससे बड़ा भारी नुकसान हुआ. तो ऐसा माना जाता है उसके अंदर कि एक सब्सटेंशियल दलित वोट, ओबीसी वोट, वो सैलजा फैक्टर के कारण कांग्रेस के साथ नहीं आया तो उससे नुकसान कांग्रेस को हुआ. तो ये मोटे कारण थे.

    सवाल- क्या हर एक राज्य में दो पैरेलल पावर सेंटर खड़े करने की गांधी परिवार की नीति है ये कभी बदलेगी?

    ये तो व्यक्ति घटनाओं से सीखता है लेकिन उम्र के जिस मोड़ पे आज सोनिया गांधी हैं और लोग हैं तो मुझे नहीं लगता काम करने में कोई बदलाव होगा. आप देखिए राजस्थान में. पहले गहलोत, पायलट चला. कितने समय चलता रहा, फिर छत्तीसगढ़ में जो है सिंह देव और भूपेश बघेल चलता रहा. अब कर्नाटक में चल रहा है सिद्धारमैया वर्सेस डीके शिवकुमार. एक और राज्य भी था मध्य प्रदेश. कमलनाथ वर्सेस सिंधिया का. सिंधिया पार्टी छोड़ के बीजेपी में चले गए.

    हरियाणा का आप देखिए हुड्डा वर्सेस सैलजा तो वर्कर इससे डी मोरलाइज होता है. वह कब तक डी मोरलाइज होंगे, देखने का विषय है. लेकिन एक बात तय मानिए कि कोई बेसिक चेंज आ जाए, उनकी वर्किंग में ऐसा मुझे लगता नहीं.

    सवाल- क्या हुड्डा के चेहरे पर एक्स्ट्रा फोकस रखना फिर जब टिकट वितरण हो रहा था तो उसमें हुड्डा को फ्री हैंड दे देना, यह भी क्या कांग्रेस की हार के कारणों में एक शुमार है?

    हो सकता है. इसके साथ ही सैलजा की बात करें तो चुनाव जब चल रहा था किसी ने टीवी पर सैलजा के चेहरे पर कांग्रेस की हार का कोई ग़म या अफसोस नहीं दिखा. एक गुट कांग्रेस की हार को शायद एंजॉय कर रहा है या उन्होंने हारने के बाद भी कहा कि पार्टी आलाकमान को सोचना चाहिए इसमें कि क्या गलत हुआ, क्या नहीं हुआ है तो पार्टी देखेगी उसको. 

    अब हुड्डा हार गये हैं इसलिए ये सब बातें आ रही हैं. हुड्डा जीत जाते तो फिर ये कहते कि कांग्रेस इसलिए जीती क्योंकि पार्टी का एक ही चेहरे पर फोकस था. और चेहरा पता था कि यह चेहरा मुख्यमंत्री बनने वाला है. नेगेटिव बात कि सबको मालूम था कि दीपेंद्र हुड्डा का शासन चलेगा तो लोग आशंकित रहते थे. खास कर जो कांग्रेस के एक गुट मन ही मन मान बैठा था कि मुख्यमंत्री तो यही बनेंगे. हमारा क्या होगा, कुछ और फोर्सेस होती हैं हर आदमी के खिलाफ जीवन में होती हैं वो एक्टिव हो गईं.

    आप कह सकते हैं बड़े स्तर पर 80 90 में से 72 सीट्स हुड्डा के कहने पर बांटना तो थोड़ा सा जेलेसी होती है. आज जब पार्टी हार चुकी है तो हम ये कह सकते हैं कि पार्टी का यह फैसला शायद गलत था. इस चुनाव में एक शक्तिशाली जाट चेहरे भूपेंद्र हुड्डा और बीजेपी के विनम्र कार्यकर्ता नायब सैनी के बीच में था. एक बार तो नरेंद्र मोदी वर्सेस हुड्डा हो गया था. सामने कोई व्यक्ति नहीं था, फिर धीरे से अमित शाह आए तो थो अमित शाह पिक्चर में ज्यादा नहीं आए. ग्राउंड पर रहे. 10 रैलियां कीं. प्राइम मिनिस्टर ने भी चार रैलियां कीं.

    लेकिन हुड्डा को लेकर मार्शल कौम का भाव आता है, जब कोई आदमी नेगेटिव थिंकिंग करता है तो और यह देखता है जाट तो फिर उधम करेंगे और ओवर पावर करेंगे आकर.

    फिर लोग सैनी की ओर देखते थे. ओबीसी में ऐसा इंप्रेशन बन गया था सैनी की लीडरशिप हो गई थी. ओबीसी में एक तरह से वह अपने पांव जमा लिए थे. लोगों को लगा था बेचारा सा मुख्यमंत्री है और फिर वहां सामने हुड्डा को देखते थे तो सैनी प्राथमिकता में आते थे. लेकिन शायद यह स्टेज आई नहीं. शायद इसके आने से पहले ही फैसला हो गया.

    हरियाणा में अब दलित एक वोट बैंक नहीं है, अब वो पावर में अपनी शेयरिंग चाहते हैं. यह सेंस आया और सेंस आया कि सैलजा तो बन नहीं रहीं. जाट बन रहा है. किसी के मन में आशा थी नहीं, आपने आशा जगा दी. फिर क्या है कि भाजपा ने हाईजैक कर लिया उस मुद्दे को. एक तरह से उससे नुकसान हुआ.

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    सवाल- कुमारी सैलजा का मुद्दा हाईजैक क्या एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया?

    ऑफकोर्स नरेंद्र मोदी मास्टर एक्सपर्ट हैं. बेसिकली चुनाव के अंदर वो बड़े मुद्दे नहीं उठाते. वो जिस चुनाव क्षेत्र में जाते हैं, लोकल मुद्दा उठा लेते हैं और दिल को टच करता है. ये पहले प्राइम मिनिस्टर हैं इंडियन पॉलिटिकल हिस्ट्री में जो कि ऐसे नेशनल मुद्दों की जगह लोकल मुद्दे को उठाते है जो जनता के दिल को छू जाता है. जिस राज्य में जाते हैं वहां का जो मुद्दा होता है, उसको उठाते हैं. कई लोग कहते हैं प्राइम मिनिस्टर के लेवल की बात नहीं है यह. इसका क्या मतलब है. चुनाव जीतना एक ही लक्ष्य होता है. उन्होंने अपने चुनावी सभा के अंदर सैलजा का मुद्दा उठाया और वो हिट रहा. इसमें सैलजा फैक्टर का भी है.

    सवाल- हरियाणा की हार राहुल गांधी की हार है या भूपेंद्र हुड्डा की?

    वैसे तो दोनों की हार है, लेकिन हुड्डा तो इनोसेंट हैं. एक तरह से वे तो चुनाव लड़ रहे थे और चुनाव के दौरान ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे उनको पॉइंट किया जा सके कि उन्होंने बयान गलत दे दिया. कंट्रोवर्सी क्रिएट कर दी या किसी को थप्पड़ मार दिया. वह बहुत शालीनता से रहे. मैंने कोई मीडिया में ऐसा कुछ देखा नहीं. तो हुड्डा तो हार ही गये. ऑन द फ्रंट हार का विक्टिम हुड्डा हैं. राहुल गांधी की बात करें तो विश्वसनीयता खोना कह सकते हैं. आखिरी में तो वह पहले विदेश गए, वहां कुछ कंट्रोवर्सी हो गई. फिर कुछ रिजर्वेशन पर बयान ऐसा दे दिया कि कंफ्यूजन हो गया.

    फिर कांस्टिट्यूशन पर कुछ ऐसा हुआ, फिर कास्ट सेंसेस को लेकर हो गया. कुछ और बातें हो गईं तो कुल मिलाकर क्या है कि हरियाणा राहुल गांधी के लिए एक झटका है और हुड्डा तो असली लूजर हैं, उनके हाथ से राज चला गया. इस हार के बाद, सोनिया गांधी को त्याग देना चाहिए, हुड्डा, खरगे, गहलोत, बघेल जैसे वरिष्ठ नेताओं का मोह और नई पीढ़ी को आगे लाना चाहिए. यह सोच के राहुल गांधी को आगे लाए थे कि नई पीढ़ी को आगे लाएंगे.

    सवाल- आखिर इस चुनाव में दलित फैक्टर का रोल क्या रहा और ऐन वक्त पर अशोक तंवर ने पाला क्यों बदला?

    पाला बदलने वाले का भाग्य ने साथ नहीं दिया. जनमपत्री ने साथ नहीं दिया. न वक्त बदला. आज कहां है वो. उनके घर पर दो आदमी नहीं होंगे मिलने वाले और बीजेपी में रहते तो तंवर कहां होते आज. मंत्री होते, फूलों के गुलदस्ते आ रहे होते. लोग उनकी बाइट ले रहे होते तो भाग्य का खेल है. उनका भविष्य तो कुछ टाइम के लिए तो ब्लॉक है.

    सवाल- क्या जो हरियाणा की हार है, ये कांग्रेस के पॉलिटिकल मैनेजमेंट की हार है?

    ऑफकोर्स अब ये तो होता ही है जब पार्टी हारती है तो लीडरशिप रिस्पांसिबल होती है तो लीडरशिप की मोरल रिस्पांसिबिलिटी है और लीडरशिप की बात अगर आप करते हो तो सोनिया गांधी, प्रियंका गांधी, राहुल गांधी, सीनियर ऑब्जर्वर अशोक गहलोत और बाकी लोग से शुरू कर सकते हैं. इनकी भी मॉरल रिस्पॉन्सबिलिटी है.

    अब बीजेपी अध्यक्ष रविंद्र रैना जम्मू में इस्तीफा दे दिया. लेकिन इनके यहां कौन इस्तीफा देगा. सोनिया कहां इस्तीफा देंगीं. तो ऐसे ही चलता रहेगा तो एक चुनाव हारे हैं अब देखिए और चुनाव में क्या होता है. एक घड़ी आई थी वो निकल गई. लेकिन मुझे ऐसा लगता नहीं कि व मोरल हार को लेकर कोई बड़ा कदम उठाने वाली है.

    सवाल- क्या राहुल का जाति जनगणना और 50 फीसद से अधिक आरक्षण देने वाला कार्ड हरियाणा में कांग्रेस के लिए उल्टा पड़ गया?

    हरियाणा की बात ही नहीं है. आगे राज्यों में शायद इसका फर्क पड़ सकता है. उनका जो नैरेटिव बना है जो उनकी थीम है कुछ विषयों पर जैसा आपने नाम बताए तीन चार विषयों के उस पर अभी तक क्लीयरिटी नहीं हो पा रही है क्योंकि उसका एक्सपेरिमेंट हरियाणा में प्रॉपर हुआ नहीं. 

    बीजेपी ने उनकी विक्ट्री को हाईजैक कर लिया एकदम से. इसे स्मार्टनेस कहिए और वोह लोग सोते रह गए. अमित शाह ने घर बैठ के शतरंज पर सब बिछा दिया और उसको एग्जिक्यूट कर दिया, शानदार तरीके से. इसलिए कई लोगों को अभी भी यकीन नहीं होता कि हरियाणा में बीजेपी जीत गई है. हर कोई चमत्कार बता रहा है. मतलब कोई भी इसको एक सहज भाव से लेने को तैयार नहीं है, इसलिए नहीं कि कोई गड़बड़ हुई है, इसलिए कि इतनी जल्दी जो चेंज हुआ ना टीवी स्क्रीन पर.

    ग्राउंड पर जो सिचुएशन 15 दिन में अमित शाह ने चेंज कर दी उन लोगों को भरोसा नहीं हो रहा. अभी तक राहुल गांधी जो पैरामीटर्स बताए हैं उन मुद्दों का कोई टेस्ट नहीं हुआ है. अभी तक हरियाणा में टेस्ट नहीं हुआ. अब बिहार में कभी चुनाव हो तो कास्ट सेंसेस से क्या फर्क पड़ता है क्या नहीं पड़ता या यूपी के उपचुनाव होंगे 10 सीटों पर. कुछ पता लगे तो कह सकते हैं कि राहुल गांधी इज अंडर टेस्ट. राहुल गांधी की थीम्स, एजेंडा और एक्सपेरिमेंट का अभी टेस्ट होना है. देखते हैं आने वाले दिनों में.

    सवाल- कुछ लोगों का मानना है कि जीती हुई बाजी, हारते कैसे हैं वो कांग्रेस से सीखना चाहिए क्या आपको भी ऐसा लगता है?

    हां ये व्यंग है और ये कांग्रेस वालों के मन की पीड़ा है. मतलब वे जो लीडरशिप से दुखी रहते हैं या लीडरशिप की अनिश्चितता से दुखी रहते हैं या लीडरशिप के स्टैंड बदलते रहते हैं उससे दुखी रहते हैं या इस तरह की हार से दुखी रहते हैं. ये तो ऐसा लगता है ये उनका मन का भाव है और मन के भाव को स्वीकार किया जाना चाहिए. 

    सवाल- क्या इंडी गठबंधन की विभिन्न घटक दलों का एक ना हो पाना भी कांग्रेस की एक हार का बड़ी वजह है?

    हां, ये होता ही है. हालांकि ज्यादा गठबंधन नहीं थे आप पार्टी थी. एक दो छोटे-मोटे और थे, जो साथ आ सकते थे. जेजेपी आ सकती थी या वो आजाद पार्टी आ सकती थी. ये तो संभावनाओं का खेल है ना राजनीति, तो जो अमित शाह ने तो उनको बहुत पहले ही लाइन अप कर लिया.

    सवाल- हरियाणा में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का जो ये गठबंधन नहीं हो पाया, क्या आपको लगता है कि इस पूरे घटनाक्रम में आम आदमी पार्टी या केजरीवाल का वही रोल रहा है जो 2024 के दौरान इंडिया गठबंधन की यूनिटी में नीतीश कुमार का रहा था?

    बिल्कुल, आप कह सकते हैं नीतीश कुमार ने क्या किया था. इंडिया गठबंधन जब टेक ऑफ कर रहा था और उसके मुख्य घटक थे नीतीश कुमार. वो पीछे हट गए. अलग हो गए, बीजेपी में चले गए तो इंडिया गठबंधन क्रैश कर गया. एक बार फिर मुश्किल से खड़ा हुआ और खड़ा होने के बाद नीतीश कुमार की कमी आज तक वो पूरा नहीं कर पाया. उसी तरह का झटका केजरीवाल ने या कहिए केजरीवाल की पार्टी ने यहां कांग्रेस को दिया.

    इसका एक बैकग्राउंड है कि ऐसा क्यों हुआ. ऐसा व ऐन वक्त पर क्यों हुआ. मुझे लगता है कि केजरीवाल की तुलना में इसके लिए कांग्रेस ज्यादा जिम्मेदार है. पहले तय हुआ था कि कांग्रेस 6 सीट आप को देगी. यह बात केसी वेणु गोपाल ने राघव चड्डा से कही. राघव चड्डा ने केजरीवाल से कहा, डील फाइनल हो गई अगले दिन न जाने किसने विरोध किया. हो सकता है हुड्डा भी शामिल हो इसमें और डील को रिवर्स कर दिया गया तो आप वालों को बड़ा इंसल्टिंग लगा.

    उन्होंने कहा कि हम छोटी सी पार्टी हो सकते हैं, सब बात ठीक है, लेकिन इतना मान-सम्मान तो हमारे लीडर, मतलब केजरीवाल का है कि उनके लेवल पर कोई बात अगर हो गई है फिर आप उससे पीछे हट रहे हैं तो गुस्से और आवेश में आकर सभी 90 सीट के लिए 89 कैंडिडेट खड़े कर दिए. तो निश्चित तौर पर ये जो डील खराब हुई इसके लिए कांग्रेस जिम्मेदार है. और ये भाजपा के लिए वरदान बनी एक तरह से.

    आप देखिए टोटल वहां क्या स्थिति बनी. आज भाजपा को जो वोट परसेंटेज मिला है 39.9 4 मिला है. कांग्रेस को मिला है 39.0 और आपका जो कंट्रिब्यूशन है वोट शेयर का वो 1.70. उनको टोटल करके इधर अगर देखते हैं तो कुल अंतर है 85 का अगर ये दोनों पार्टियां साथ रहतीं तो शायद बीजेपी की जीत में दिक्कत होती. बीजेपी हो सकता है फिर भी जीतती लेकिन राजनीति गणित का खेल है, संभावनाओं का खेल है, अपेरेंटली ऐसा लगता है.

    गठबंधन नहीं होना दोनों पार्टियों का, भाजपा जीत के अप्रत्याशित कारण में से एक यह भी है.

    सवाल- हरियाणा के अंदर कांग्रेस का जो नारा रहा- किसान, जवान, पहलवान का वो पिट गया?

    क्या है कि नारे तक पहुंच ही नहीं पाए लोग. अमित शाह ने हाईजैक कर लिया, एक तरह से. फिर क्या होता है जनता अपना मन बना लेती है तो फिर कोई नारा काम नहीं आता, कोई स्लोगन काम नहीं आता, कोई आपका कंट्रिब्यूशन पब्लिक का काम भी काम नहीं आता, इनको संभलने का मौका ही नहीं मिला.

    कांग्रेस ओवर कॉन्फिडेंट रही. सबसे बड़ी बात कि ग्राउंड की तरफ देखा ही नहीं. सारा फोकस हुड्डा के चारों तरफ रहा. अमित शाह ने फिर इसे पकड़ा, एक तरह से बाजी को जीता. मुद्दों से पहले ही उन्होंने खेल कर दिया.

    सवाल- क्या हरियाणा में राहुल गांधी की बात ना मानकर हुड्डा ने वही कमलनाथ वाली गलती कर दी?

    कह सकते हैं. कमलनाथ इसी बात पर अड़े हुए थे कि राहुल गांधी कुछ मामलो में स्मार्ट हैं. रीजनल क्षत्रप होते हैं, वह नहीं मानते. उनको राज आता हुआ दिखाई देता है उसको बांटना नहीं चाहते किसी के साथ. यह कमलनाथ के साथ था. सपा के साथ राहुल गांधी गठबंधन करना चाहते थे, जो है नहीं हुआ. राहुल गांधी की फाइनली नहीं चलती कई बार.

    सोनिया गांधी ओवर रूल कर देती होंगी, ऐसा लगता है मुझे. कमलनाथ के मामले में यही हुआ होगा. अखिलेश यादव के लिए कुछ और भी कह दिया कमलनाथ ने. तो उससे नुकसान हुआ. वहां सरकार बनती, नहीं कह सकते क्योंकि बीजेपी को स्वीपिंग मेजॉरिटी मिली है.

    इसलिए कह सकते हैं ब्रॉडली कि जो गलती उन्होंने वहां की थी वो गलती इन्होने यहां पर की.

    सवाल- कांग्रेस ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने अपनी वेबसाइट पर धीरे-धीरे रुझानों को जारी किया, कांग्रेस कहना क्या चाहती है?

    इस तरह के आरोप लगाकर कांग्रेस कन्फ्यूज्ड है. कांग्रेस को समझ नहीं आया. यह बयान देना जयराम रमेश को देना था. पवन खेड़ा ने दिया. उनका काम है पार्टी के स्टैंड को कहना तो उन्होंने वही ईवीएम की पुरानी बात को दोहराया है और प्रेस कान्फ्रेंस में उन्होंने कहा भी हम चुनाव आयोग गए हैं जाएंगे और स्पेसिफिक केसेस भी दिए हैं.

    ईवीएम में कुछ एक स्पेसिफिक डिस्क्रिपेंसी हो सकती है. आखिर मशीन है लेकिन बड़े पैमाने पर कुछ ऐसा हो गया हो मुझे लगता नहीं है. सब कुछ सबके सामने था, जब कांग्रेस जीत रही थी तब भी सामने था. हार रही थी तब भी सामने था और जो वोटिंग हुई है. आजकल तो वेब वोटिंग होती है. एक तरह से तो ऐसा कुछ हो नहीं सकता और फिर अभी तक तो ईवीएम का मामला सुप्रीम कोर्ट तक रिजेक्ट होता रहा है. इसलिए इस मुद्दे को खोलने का मतलब नहीं.

    सवाल- इस पूरे चुनाव में आखिर क्या रोल रहा जी न्यूज के चेयरमैन एवं पूर्व राज्यसभा सांसद डॉक्टर सुभाष चंद्रा की कही बात का?

    हां सुभाष चंद्रा एक विजनरी आदमी हैं और अपने खास किस्म के, खास मिजाज के, खास मूड के आदमी हैं. उनको लगा कि उनका जो होम टाउन है, आजमपुर वहां पर बीजेपी को सपोर्ट न करके एक एक्स आईस ऑफिसर चंद्र प्रकाश को सपोर्ट करना चाहिए तो उन्होंने सपोर्ट किया, वो जीत गए. एक दूसरी सीट हिसार में जो कि उनका टाउन है, सावित्री जिंदल को सपोर्ट किया वो भी जीत गईं.

    और एक चुनाव क्षेत्र है जहां पर शायद रणवीर कोई हैं कैंडिडेट उनको सपोर्ट किया तो वो जीत गए, तो बड़ी एक विचित्र सी स्थिति रही. डॉक्टर सुभाष चंद्रा ने तीन लोगों को सपोर्ट किया, कांग्रेस वालों को भी सपोर्ट किया, इंडिपेंडेंट को सपोर्ट किया और भाजपा वाले को सपोर्ट किया और तीनों सीटों पर वो लोग जीते जिनको समर्थन कर रहे थे तो उनका असेस्मेंट और कई बार वो आत्मा की आवाज से चल चल पड़ते हैं, कई बार उनको ऐसा लगा होगा कि ऐसा करना ठीक है मेरे लिए कर दिया, उन्होंने बहरहाल बात इतनी है कि जिन कैंडिडेट्स पर उन्होंने हाथ रखा था वो तीनों जीत गए.

    सवाल- इसी को थोड़ा सा और लिबरेट करते हुए हिसार की राजनीति का पेंच समझा दीजिए. सावित्री जिंदल सबसे अमीर महिला निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीत गईं, इसे आप कैसे देखते हैं?

    अच्छी महिला हैं, संभ्रांत महिला हैं. कोई नेगेटिविटी मैंने देखी नहीं. बाकी हिसार देखो पृथ्वी पर ईश्वर की कमाल की देन है. कितने बड़े-बड़े लोग वहां से निकले. नरेश गोयल वहीं के थे. डॉक्टर सुभाष चंद्रा वहीं से हैं, फिर ये नवीन जिंदल भी वहीं से हैं. एक दिन जाऊंगा आदिती हिसार में. पहले चेयरमैन साहब कहते थे चलेंगे कभी, जा नहीं पाए. उस समय तो एक बार जाके देख के आएंगे कि कैसा शहर है और क्या हैय़?

    सावित्री जिंदल की जहां तक बात है तो वह बीजेपी से टिकट चाहती थीं, वो नहीं मिला. वो निर्दलीय लड़ीं, जीत गईं, और नवीन जिंदल की मां पहले कांग्रेस में थीं वो भी अब बीजेपी में हैं. ये पहले कांग्रेस में एमएलए थीं, इसमें आ गई हैं. अमीरों में से एक हैं. आज पांच उद्योगपति है देश में मुकेश अंबानी, अडानी. उन सब में कहते हैं पांचवे नंबर पर हैं. समाज सेवा में रहती हैं. अलर्ट हैं, लोकप्रिय हैं तो बस यही है हिसार का पेच कि बड़े-बड़े लोगों की नगरी है हिसार.

    सवाल- आखिर सिरसा सीट पर पावरफुल गोपाल कांडा कैसे हार गए और अभय चौटाला और दुष्यंत चौटाला की हार के पीछे का कारण क्या है?

    कांडा तो पता नहीं क्यों हारे, नॉर्मली हारते नहीं है वो. वो साम-नाम दंड, भेद की राजनीति करते हैं. अमीर आदमी हैं, उनका टेलीविजन है. अच्छा प्रभाव है. भाजपा में रुतबा है उनका. भाजपा से तय करवा लिया कि उनके सामने भाजपा कैंडिडेट खड़ा नहीं होगा. उसके बदले में तीन चुनाव क्षेत्र और है जहां उनका प्रभाव है. बीजेपी को सपोर्ट किया उन्होंने, लेकिन खुद पता नहीं कैसे हार गए इस बार. तो फिर व जन्मपत्री वाली बात है कि हार गए और बाकी जो चौटाला परिवार के विरासत के लोग हैं. आठ लोग लड़े थे दो ही जीत पाए 6 हार गए और इनका हारना बड़ी गंभीर घटना है क्योंकि प्रमुख खिलाड़ी यही थे. हार का कोई एक्सप्लेनेशन नहीं होता.

    सवाल- अब आम आदमी पार्टी हरियाणा में भले ही लड़ी हो, लेकिन कहीं पर भी एक सीट भी नहीं निकाल पाई वैसे मैं आपको लगता है कि जो एक साइकोलॉजिकल पॉलिटिकल प्रेशर या फियर मनीष सिसोदिया को अरविंद केजरीवाल को हुआ होगा क्योंकि दिल्ली चुनाव भी सिर पर ही है?

    ऑफकोर्स निश्चित हुआ होगा. हालांकि उन्होंने मन बनाया होगा कि हरियाणा में हमें चुनाव तो जीतना नहीं है, कांग्रेस को लेसन देना है. कांग्रेस को लेसन उन्होंने दे दिया. लेकिन फिर भी यह तो सोचा होगा कि कम से कम जम्मू में एक आदमी जीत गया तो हमारा यहां तो खाता तो खुले, इतना तो सोचा ही होगा. लेकिन वो नहीं हुआ. तो उन्होंन चिंता होनी चाहिए. इसमें कोई कोई संदेह नहीं.

    सवाल- हरियाणा में जो चुनाव परिणाम सामने आए उसके बाद आपको नहीं लगता कि जो रीजनल पार्टीज हैं वो अपना महत्व और रेलीवेंस दोनों ही कहीं ना कहीं खो रही हैं?

    बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप इनेलो को दो सीट मिली है. हरियाणा में बाकी सब गायब हैं और पूरे देश में ही चल रहा है. देखिए चाहे बीएसपी हो, चाहे सपा हो, एक यूपी को छोड़ के कहीं किसी का एक्जिस्टेंस नहीं है. एक बार विचारधारा चली हुई थी बीजेपी में कि लेट्स क्लोज लेट्स जिसे कहते हैं क्लोज इन द सेंस कि इसको वाइंड अप करें.

    लेकिन ये फैक्ट है कि इस चुनाव में हरियाणा में रीजनल पार्टीज का प्रभावत खत्म है और अभी तो कोई रेलीवेंट है नहीं. अभी 5 साल चुनाव है नहीं तो.

    सवाल- हरियाणा के अंदर अभी नई सरकार के सामने आपको क्या चुनौतियां लगती है, क्योंकि अभी अगर मौजूदा आर्थिक हालात समझें तो हरियाणा के सीएम सेनी अपनी चुनावी गारंटी पूरी कर पाएंगे?

    इन हालातों में उनकी गारंटी तो अब नरेंद्र मोदी अमित शाह की गारंटी है. वे राज लाए हैं, राज को बनाना है, जमाना है, आगे मैसेज देना है. उनको झारखंड और महाराष्ट्र में और बाकी स्टेट्स में कि हम सम्मान करते हैं अपनी गारंटी का तो सेंट्रल से पैसा जाएगा वहां. गारंटी के लिए काफी पैसे चाहिए. हरियाणा में महिलाओं को हर महीने पैसे देने की बात है. फिर एमएसपी का मुद्दा है, जो 24 फसलों पर सबको देने की बात है. एक तरह से 10 लाख रुपये का फ्री बीमा देने की बात है अग्निवीर जितने हैं सरकारी नौकरी देने की बात है. 70 साल से ज्यादा वाले को 5 लाख का फ्री इलाज देने की बात है. पेंशन की बात है.

    हरियाणा का हाल वैसा नहीं हो जाए उन राज्यों जैसा, जो उधर हो रहा है हिमाचल में. कर्नाटक में हो रहा है. मान लो तो अब वो तो क्या है ना कि भारत सरकार की डबल इंजन की सरकार है तो दूसरा इंजन बड़ा है पावरफुल है तो खींच के ले जाएगा इसको.

    सवाल- क्या सच है कि इस बार कांग्रेस की तुलना में बीजेपी को ज्यादा जाट सीटें मिली हैं?

    हां यह आश्चर्य की बात है. विचित्र किंतु सत्य मैं पढ़ रहा था 13 सीटें मिली हैं, पहले से कोई पांच सीट ज्यादा. यह बीजेपी का मैनेजमेंट है. स्ट्रेटजिस्ट जो लोग हैं उनका मैनेजमेंट है. एक्चुअल में क्या होता है ना कि कोई भी कास्ट 100% किसी एक पार्टी के साथ नहीं होती. 10-20 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो दूसरे को समर्थन देते हैं वो भी एक कारण है, लेकिन इस बार क्या बीजेपी को कंपेरटिवली जाट बेल्ट में जो है ज्यादा सक्सेस मिली है पहले 30 पर सक्सेस मिली थी, पिछले चुनाव में. आज मैं पढ़ रहा था 51 पर सक्सेस मिली है तो ये फैक्ट है कि जाट बेल्ट में भी बीजेपी को ज्यादा सीटें मिली हैं पहले की तुलना में.

    सवाल- हुड्डा के खिलाफ सीबीआई और ईडी के केसेस लगातार चल रहे थे अब क्या वो रफ्तार पकड़ते नजर आएंगे?

    कोई खास नहीं, उनको भी आदत हो गई है कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाने की. ईडी के दफ्तर जाने की. 2-4 घंटे बैठने की और कोई ऐसा स्टेज, कोई डिसाइसिव स्टेज आए जिसमें किसी को अरेस्ट करना पड़े ऐसा अभी लगता नहीं है. चुनाव का माहौल है बाकी फिर क्या है कि ये एजेंसी अपना काम अपने मेरिट पर और अपने फाइल के आधार पर करती हैं. लेकिन कानून तो अपना काम करेगा और जो आप कह रहे हैं कि कोई स्पीड पकड़े गी ऐसा मुझे नहीं दिखाई देता.

    सवाल- महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में भी इस जीत बड़ा इंपैक्ट आप देख सकते हैं?

    100% यह तो क्या है ना पॉलिटिक्स क्या है इशारों का खेल है जो मैंने आपसे कहा संकेतों का खेल होता है अब संकेत चला गया कि मोदी इज बैक, मोदी ब्रैंड इज बैक. अब बहुत दूर तक ट्रेवल करेगा और वर्कर कितने होते हैं, कल नरेंद्र मोदी गए थे न बीजेपी हेड क्वार्टर. कितना उत्साह था लोगों के अंदर. तो एक हरियाणा की जीत ने पूरी पार्टी को जो है ना वापस नए सिरे से खड़ा कर दिया और झारखंड और महाराष्ट्र उसके एक्सेप्शन नहीं हैं.

    और इसका दूसरा पहलू जो कि भाजपा के फायदे में है वो यह है कि वो पार्टियां सतर्क हो गई हैं जो कांग्रेस से गठबंधन कर रही हैं. उन राज्यों में उन्होंने कांग्रेस को आंख दिखाना शुरू कर दिया है. कांग्रेस की बारगेन पावर कम होगी. राहुल गांधी की बारगेन पावर एकदम से कम होगी, तो इसका क्या है कि डबल मार हुई है कांग्रेस पर. एक तो भाजपा का मतलब फेवरेबल इंडिकेशन हो गया.

    वहां पर भाजपा के आने के चांसेस बढ़ गए हैं, परसेप्शन में. और इधर कांग्रेस का क्या है कांग्रेस का खुद का जो बर्गेनिंग पावर थी, वो कम हो गई है, लंग रन में अगले कुछ महीने तक इसके आपको इसके साइड इफेक्ट दिखाई देंगे.

    सवाल- हरियाणा चुनाव में आरएसएस का रोल आप कैसे देखते हैं और दूसरा क्या आपको लगता है कि हरियाणा चुनाव में जबर्दस्त बीजेपी की जीत के बाद बीजेपी और आरएसएस के संबंधों में कुछ बदलाव होगा?

    हरियाणा में आरएसएस था कि नहीं इसको लेके अलग राय है लेकिन ज्यादातर लोगों का मानना यह कि 16000 उन्होंने मीटिंग ग्राउंड पर की, जहां भाजपा कमजोर थी. वो लोग गए और आरएसएस के उस वर्ग का कहना है कि अगर हम नहीं जाते तो क्या इतनी विक्ट्री होती. मैं थोड़ा सा इससे डिफर करता हूं आरएसएस का रोल रहा होगा, लेकिन यह विक्ट्री नरेंद्र मोदी की जो सुपरविजन है या कहिया नरेंद्र मोदी का जो विजन है, विजडम है, उसके नीचे अमित शाह ने जो होमवर्क किया है उससे विक्ट्री है.

    बाकी चर्चा है कि आरएसएस की 16000 मीटिंग की. आरएसएस-बीजेपी के बीच में जो स्टेल मेट है या कम्युनिकेशन गैप है अभी सॉर्ट आउट पूरी तरह से हुआ नहीं है और रही बात इसका आपने कहा क्या प्रभाव पड़ेगा तो निश्चित तौर पर जो दो व्यक्ति डायलॉग करते हैं आपस में तो थोड़ा बहुत गिव एंड टेक होता है हर सिचुएशन में तो उसमें क्या है कि बीजेपी अब ज्यादा स्ट्रांग है बात करने में.

    सवाल- हरियाणा की बात हो गई. जम्मू कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की जीत को आप कैसे देखते हैं?

    यह जीत स्वाभाविक है. एक अच्छा लक्षण है. घाटी के अंदर लोकतंत्र की वापसी है. इतने साल बाद चुनाव हुए हैं. शांतिपूर्ण चुनाव हुए हैं. अब एक नई सरकार बन गई है और सबसे अच्छी बात है कि सरकार के जो शुरुआती संकेत आ रहे हैं वो बड़े रचनात्मक आ रहे हैं, पॉजिटिव आ रहे हैं तो बहुमत की सरकार है क्लियर मेजॉरिटी है कोई तोड़फोड़ की आवश्यकता नहीं है. जोड़-तोड़ की आवश्यकता नहीं है तो ऐसी आशा की जानी चाहिए कि सरकार क्लियर मेजॉरिटी के साथ अब शपथ लेगी और कंस्ट्रक्टिव विचारों के साथ में जो एजेंडा वहां डेवलपमेंट का है. उसको केंद्र के साथ मिलकर आगे बढ़ाएगी और शुरुआती संकेत ऐसे ही आ रहे हैं तो एक अच्छा डेवलपमेंट है.

    सवालः एनसी के लिए जम्मू कश्मीर में इतनी बड़ी जीत और जीत के बाद अब्दुल्ला परिवार जिस तरीके से सत्ता में वापसी की है क्या लगता है आपको, क्या कभी सोचा था वापस आएंगे?

    कोई कल्पना थोड़ी की थी. अगेन ग्रेटू टू नरेंद्र मोदी, अमित शाह एंड सुप्रीम कोर्ट. इसके लिए प्राइम मिनिस्टर हों, इलेक्शन कमीशन एंड सुप्रीम कोर्ट कि एक प्रॉपर तरीके से चुनाव हुआ उनके राज में वापसी हुई और आज वो सत्ता में बैठे हैं.

    सवाल- बिना कांग्रेस के परामर्श के ही फारूख अब्दुल्ला ने कह दिया कि उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनेंगे इस डेवलपमेंट को आप कैसे देखते हैं?

    फारूक अब्दुल्ला का जो बयान था थोड़ डिस्टर्बिग था. लेकिन उमार अब्दुल्ला समझदार हैं, उन्होंने इसको रेक्टिफाई किया. कहा- नहीं हम जो सहयोगी दल है गठबंधन हैं, उनसे चर्चा करके तय करेंगे. तो यही एक लोकतांत्रिक तरीका होता है बात करने का.

    सवाल- अब्दुल्ला ने कहा कि पांच साल वो मुख्यमंत्री रहेंगे. इन पाच सालों में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के जो आपसी रिश्ते हैं उनको आप कैसे देखते हैं?

    देखो थोड़ा बहुत तो खट-पट होती है कांग्रेस में. कई पावर सेंटर हैं. हालांकि कोई ज्यादा कांग्रेस के एमएलए नहीं हैं. डिफरेंसेस तो हो सकते हैं. पांच साल तो बहुत लंबा पीरियड है. होने के लिए इस पांच साल में क्या होता है नहीं कहा जा सकता, पर सब कुछ ठीक होने की संभावना है.

    सवाल- उपराज्यपाल के पांच विधायकों के नॉमिनेशन को लेकर के आखिरकार क्या है कंट्रोवर्सी?

    कंट्रोवर्सी नहीं होती. पहले अगर पता होता कि क्लियर मेजॉरिटी आ रही है तो मान लो एक पल के लिए उनका कहना यह था रेट्रोस्पेक्टिवली कहना था कि राज्यपाल को एक कदम कैबिनेट की सलाह पर उठाना चाहिए था, नॉमिनेशन जो है. राज्यपाल ने कहा होगा कि मेरे पावर्स के अंदर है सलाह की आवश्यकता नहीं है ऐसा ये लगता है मन का भाव ये कि अगर जरूरत पड़े सरकार बनाने की और अगर हंग असेंबली होती और भाजपा को पांच आदमी सपोर्ट कर दें तो फिर सरकार बनाने में अगर कोई मदद है तो पहले इनका नॉमिनेशन कर दो, काम आएंगे. स्थाई सरकार को बनाने में पॉलिटिकल बेनिफिट इसका बीजेपी को जा सकता था.

    लेकिन वो हालात नहीं बने. तो अब वो कंट्रोवर्सी खत्म है. उसमें लोगों ने कहा था हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे राज्यपाल के सेक्शन के अगेंस्ट में, लेकिन चूंकि अब जो बयान आ रहे हैं फारूक अब्दुल्ला के, अमर अब्दुल्ला के वो रचनात्मक बयान आ रहे हैं. पॉजिटिव बयान आ रहे हैं तो ऐसा लगता नहीं. तो अब कुछ होने को लगता नहीं है.

    सवाल- आपको लगता है कि जो नए मुख्यमंत्री होंगे और एलजी मनोज सिन्हा के बीच की तकरार या बातचीत या संबंध कैसे होंगे, या दिल्ली जैसे हालात होंगे?

    हां इसको लेकर चिंता है सबके मन में. सबके चेहरे पर, जो लोग कश्मीर को डील करते हैं क्योंकि शुरुआत उसकी अच्छी नहीं हुई थी. मनोज सिन्हा ने जो इंटरव्यू दिया था उससे पहले अब्दुल्ला ने इंटरव्यू दिया था. उमर ने दिया था और कहा था कि अगर मुझसे अपेक्षा करें राज्यपाल कि मैं राज्य भवन जाऊं और राजभवन जाकर जो है मैं उनके गेट पर बैठूं और फिर अंदर जाऊं. मुझे चपरासी दिखना है, मेरी फाइल पर साइन कर दीजिए तो मुझसे नहीं होगा, तो गवर्नर ने पलट के इंटरव्यू दिया था और यह कहा था कि अगर हमारा कॉमन ऑब्जेक्टिव यहां पर प्रॉस्पेरिटी और पीस लॉ एंड ऑर्डर लाना है तो हमारे डिफरेंस ओपिनियन हैं.

    मनोज सिन्हा भी थोड़े टफ किस्म के एडमिनिस्ट्रेटर हैं. खाटी पॉलिटिशियन हैं और ये सब तो है ही लेकिन शुरुआती दौर जितना आज कंस्ट्रक्टिव रिस्पांसस आए हैं. दोनों से. अब्दुल्ला से सेंटर से. उससे ऐसा लगता है कि सेंटर शायद इशारा कर देगा मनोज सिन्हा को कि मिलकर चलो. कानून बनना अलग बात है और कानून की पालना कैसे एग्जिक्यूट करते हो वो एक अलग विषय है. उसके अंदर अब कानून तो यह है नया जो एंपावरमेंट हुआ गवर्नर का कि मंत्री कोई भी मीटिंग करेगा तो उसका एजेंडा दो दिन पहले राज्यपाल को भेजना होगा. और सीएम कब मीटिंग करेगा राज्यपाल का एक नॉमिनी अधिकारी वहां बैठेगा.

    तो चूंकि टकराव के हालात अभी नहीं है, मुझे लगता है 5-6 महीने तो ऐसी दोस्ती चलनी चाहिए. कम से कम जो है तो वो लोग बैठेंगे कानून की पालना तो होगी. सरकार के साथ रहेंगे और जब संबंध अगर ठीक नहीं रहेंगे तो वो लोग अपनी पावर को एक्सरसाइज करेंगे. आगे जाके तो सब कुछ डिपेंड करता है आने वाले दिनों में कि इनिशियली जो टेक ऑफ बहुत अच्छा हुआ है रिलेशनशिप्स का वहां से भी अच्छा मैसेज आया है. उमर ने कहा कि हम केंद्र से झगड़ा नहीं चाहते. हम सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं.

    प्रधानमंत्री ने कहा, जनता को बधाई देता हूं. आइए सब मिलकर हम श्रीनगर का कश्मीर का विकास करें तो इनिशियली जो संकेत है बहुत अच्छे हैं. तो देखते हैं लेकिन टकराव की संभावना हमेशा रहेगी. ये डिपेंड करता है गवर्नर अपना जो एंपावरमेंट है उसको कितनी स्ट्रिक्टली लागू करते हैं और उमर उसको कैसे लेते हैं.

    सवाल- क्या एक बार फिर से पाला बदल करके नेशनल कॉन्फ्रेंस, नरेंद्र मोदी के साथ जा सकता है?

    डॉ चंद्र ने कहा, राजनीति संभावनाओं का खेल है कुछ भी हो सकता है और नरेंद्र मोदी, अमित शाह के राज में तो कुछ भी हो सकता है. और इसका उदाहरण है प्रेसिडेंट हैं. 1999 में अटल बिहारी वाजपेई थे तो फारूक अब्दुल्ला उनके साथ थे. केंद्रीय मंत्री थे. फिर अलग हो गए थे तो फिर से जुड़ सकते हैं क्या इनकार है और ऐसा कांग्रेस का प्रेशर है नहीं कोई. 

    अब दिल्ली पिता-पुत्र साथ आएंगे. प्राइम मिनिस्टर के साथ फोटो खिंचा के जाएंगे. प्राइम मिनिस्टर ने आजकल एक अच्छा कर रखा है परिवार के साथ बुलाते हैं. कई लोगों को फोटो खिंचाते हैं चाय पिलाते हैं. अच्छे से इनको भी बुलाएंगे ड्यू कोर्स में जो है तो किसी दिन दोस्ती हो जाए तो हो जाए कुछ कह नहीं सकते.

    कोई भी ऐसा काम जो नेशनल इंटरेस्ट में हो, जो कश्मीर को स्टेबिलिटी दे सके. जो कश्मीर के लॉ एंड ऑर्डर को इंटैक्ट रख सके उन सबका हम स्वागत करते हैं.

    सवाल- नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसी पार्टीज जिन्होंने चुनाव से पहले धारा 370 को वापस लाने का वादा किया, दो झंडे का वादा किया. क्या आपको लगता है कि पूरा कर पाएंगे?

    पूरा तो करना नहीं था और एक बड़ा सुखद मैसेज में उमर ने खुद ही कह दिया ये कि जो सरकार 370 लाई है, उसके रहते तो वापस हो नहीं सकता.

    नई सरकार आएगी तब देखेंगे. बहुत ही बुद्धिमता पूर्ण स्टेटमेंट है. जैसे कि उन्होंने कहा था मेरी असेंबली में फर्स्ट रेजॉल्यूशन होगा, 370 को हटाने का तो रेजॉल्यूशन आप कर देते हैं. होम मिनिस्ट्री में आता, गवर्नर के थ्रू यहां पड़ा रहता. कुछ नहीं होता. उस पर जांच चलती रहती, उसके बजाय उन्होंने बुद्धिमता पूर्ण कदम उठाया, विजनरी कदम उठाया और ये कहा कि 370 तो वापस नहीं आ सकता. अमित शाह ने पहले ही कहा था चुनाव के दौरान ही 370 अब इतिहास है. ये कभी वापस नहीं आ सकता.

    तो उन्होंने स्वीकार कर लिया है, तो टकराव का एक बड़ा रास्ता जो खुलने वाला था जो वो बंद हो गया है. सुखद खबर है, अच्छी खबर है.

    सवाल- आखिर कैसे होंगे जम्मू कश्मीर और केंद्र के रिश्ते और क्या केरल तमिलनाडु और कर्नाटक की स्टोरी रिपीट होगी?

    जम्मू कश्मीर में भी अभी 6 महीने तो नहीं लगता है शुरुआती दौर में दोनों एक दूसरे को निभाने की कोशिश करेंगे. नरेंद्र मोदी, अमित शाह का यह तो व्यू है नहीं कि कश्मीर नॉर्मल रहना चाहिए, इतनी मेहनत करके कश्मीर इज बैक टू नॉर्मल टूरिज्म इज बैक टू नॉर्मल, बिजनेस इज बैक टू नॉर्मल, डेवलपमेंट इ बैक टू नॉर्मल.

    सड़कें बन रही हैं और सब हो रहा है तो ये सब रहना चाहिए. वहीं पूरी कोशिश करेंगे सरकार को निभाने के लिए तो डिपेंड करता है कि कौन कितना आगे बढ़ता है. कौन कितना फ्लेक्सिबल होकर आगे बढ़ता है, तो संभावना यही कि मिलके चलेंगे दोनों. अपन कह सकते हैं कि शुरुआत के 6 महीने अहम होंगे. 

    सवाल- शंकराचार्य पहाड़ी हरि पर्वत का नाम बदलने का वादा तो कर दिया नेशनल कॉन्फ्रेंस ने, लेकिन क्या यह मुनासिब होगा कि इनका नाम बदला जा सके?

    लगता नहीं है मुझे अभी कि ऐसा कंट्रोवर्शियल किसी काम में पड़ेंगे. इलेक्शन मेनिफेस्टो था. 5 साल पड़े हैं उनको पूरा करने के लिए. कोई आएगा तो कह देंगे, बहुत टाइम पड़ा है अभी. जब 370 ही ड्रॉप हो गया एक तरह से उनके एजेंडा. और अब डॉक्टर जितेंद्र सिंह वहां पर हैं. जम्मू से पावरफुल मंत्री हैं. अभी उनके भाई भी चुनाव जीते हैं, हाईएस्ट वोट से. रविंद्र राणा वो तो उनकी तकदीर में मुख्यमंत्री बनना नहीं लिखा था, वरना क्या है कि अगर वो भाजपा की सरकार बनती तो वो भी एक पोटेंशियल कंटेंडर थे.

    डॉक्टर जितेंद्र सिंह वहां पर हैं. सब हैं और मनोज सिन्हा हैं और सब में कोऑर्डिनेशन अच्छा है तो मुझे ऐसा नहीं लगता कोई भी ऐसा मुद्दा सरकार उठाएगी जिससे कि सामाजिक सौहार्द बिगड़े. उनका मेनिफेस्टो में पड़ा रहेगा, अगला चुनाव आएगा उससे पहले बात होगी अभी तो मुझे नहीं लगता ऐसा कुछ होगा.

    सवाल- अपने वादे के मुताबिक क्या उमर अब्दुल्ला दरबार प्रथा फिर से शुरू कर पाएंगे?

    कर सकते हैं. यह एक ऐसा विषय है जो बहुत कोई कंट्रोवर्सी नहीं करने वाला. खाली 2-3 सौ करोड़ खर्चे की बात है अगर उनको साइकोलॉजी के लिए अच्छा लगता है कि ठीक है, दरबार होना चाहिए 6 महीने वहां रहेंगे, 6 महीने यहां रहेंगे. ठीक है. तो ये कह सकते हैं भाई हमें तो कोई तकलीफ नहीं, आप देख लीजिए अपना खर्चा फिर व हाईकोर्ट ने कहा हुआ है तो हाईकोर्ट में चले जाएंगे. एप्लीकेशन लेकर के हमें इसे रिस्टोर करना चाहते हैं, इसको हाईकोर्ट भी क्या है कि सब आंख कान खुले रखते हैं. लोग समझते हैं बात को तो आई थिंक कंस्ट्रक्टिव प्रपोजल है हाईकोर्ट को अगर वो कहेंगे कि हम करना चाहते हैं तो हाईकोर्ट को क्या आपत्ति होगी तो ये एक मांग ऐसी है इसको अगर वो उनका खुद का मन करेगा तो ये पूरी हो सकती है.

    दरबार सिस्टम वापस लागू हो सकता है कोई इसमें लूजर नहीं है, एक्सेप्ट 300 करोड़.

    सवाल- अब श्रीनगर में नई सरकार मिलने के बाद जम्मू कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा कब मिलेगा?द

    देखिए, इनके आचरण पर डिपेंड करेगा मौजूदा सरकार के. सिद्धांत के लिहाज से अमित शाह पहले कह चुके हैं केवल केंद्र स्टेटहुड ग्रांट कर सकता. केवल नरेंद्र मोदी और या तो अमित शाह. स्पष्ट तौर पर कह चुके हैं कि केवल भारत सरकार अर्थात गृह मंत्रालय और नरेंद्र मोदी ही पूर्ण राज्य का दर्जा वापस लौटा सकते हैं.

    सवाल- इसी मुद्दे पर स्टेटहुड दिलाने पर राज्य का दर्जा मिलने पर राहुल गांधी ने कहा है कि अगर नहीं मिला तो इंडिया एलायंस के तमाम नेता तमाम कार्यकर्ता लोग सड़क पर आ जाएंगे, आप इसे कैसे देखते हैं?

    अब बाजी राहुल के हाथ से निकल गई है. एक्चुअली जो है हरियाणा में कल थोड़ा सा जो हुआ है, एक मोरल असर होता है हर आदमी का. अथॉरिटी होती व थोड़ा कम हुई है.

    तो हो सकता है वो कह दें कि दिल्ली वाले कि रुक जाओ 6 महीने तो फिर राहुल गांधी क्या करेंगे तो मुझे ऐसा लगता नहीं है कि इस बात के लिए सड़क पर आने की जरूरत पड़े. क्यों अगर गवर्नमेंट का सपोर्ट नहीं होगा सड़क पर आने को तो राहुल गांधी अकेले क्या करेंगे और राहुल गांधी खुद समझदार हैं. वैसे उनको दिखता है कि 6 महीने में अगर इनकी दोस्ती अच्छी चल रही है. क्यों सड़क पर उतरें और सड़क पर उतरने पर कांग्रेस के लोग तो है नहीं.

    सवाल- अब्दुल्ला सरकार के प्रति जम्मू कश्मीर बीजेपी का रुख है वह कैसा रहेगा, वह सेंटर पर डिपेंड करेगा, डबल इंजन की सरकार है, इशारे से चलती है. उनको लगेगा कि सरकार कुछ ऐसे फैसले कर रही है जो हिंदू सेंटिमेंट के खिलाफ है जो उनके सिस्टम के खिलाफ है भारत सरकार के एजेंडे के खिलाफ है या आम जनता के खिलाफ है जन विरोधी फैसले हो रहे हैं वहां पर. कुछ इस तरह का हो रहा है तो आवाज उठाएंगे. वो अब आवाज कितनी उठाएंगे यह उस वक्त डिपेंड करेगा कि 2000 वर्कर आएंगे, 4000 आएंगे, 6000 आएंगे प्रदर्शन करने और क्या पुलिस उस पर लाठी चार्ज करेगी या नहीं.

    पॉलिटिकल डिसीजन है. अभी वही बात है 5-6 महीने. तो शांति लगती है मुझे अभी तो अभी तो कुछ नहीं होने वाला.

    सवाल- एक सवाल यह भी है कि क्या नई सरकार के दौरान भी जम्मू कश्मीर में बना रहेगा मौजूदा लॉ एंड ऑर्डर और क्या लाल चौक पर भी ऐसे ही चलती रहेगी नॉर्मल लाइफ?

    बहुत महत्वपूर्ण सवाल है आपका ये सारी सफलता सुप्रीम कोर्ट के एक्सपेरिमेंट, नरेंद्र मोदी के एक्सपेरिमेंट के इस सवाल के जवाब में निहित है कि जो सपना हमने बनाया था. श्रीनगर में जो सपनों का शहर बनाया था जो धरती का स्वर्ग रीक्रिएट किया था, रिस्ट्रक्चर किया था उसको रिकंस्ट्रक्ट किया था. क्या उतना ही सुरक्षित रहेगा, क्या आम आदमी का जीवन वैसा ही रहेगा, क्या लाइफ इतनी नॉर्मल रहेगी, टूरिजम इंडस्ट्री ऐसी रहेगी, बिजनेस ऐसा चलता रहेगा.

    इस चुनाव से पहले जो श्रीनगर एक स्वर्ग की तरह जो एक लॉ एंड ऑर्डर का पीसफुल स्टेशन था. हर आदमी जा रहा, आ रहा वहां पे क्या वैसा बना रहेगा. यह वक्त बताएगा. इससे बहुत कुछ डिपेंड करेगा किसी दिन किसी बात को भी लेकर किसी ने प्रदर्शन किया चाहे वो बीजेपी के लोग हों, राहुल गांधी हों, कोई दूसरे जमाती लोग हों, ये जो लोग पिट गए हैं चुनाव में.

    ये लोग ही 200 की भीड़ के साथ प्रदर्शन करेंगे. मीडिया आजकल अखबार में चैनल में सबके मोबाइल पर आ जाएगा. कौन जाएगा श्रीनगर कोई नहीं जाएगा. तो सारे लोग पीछे हट जाएंगे वहां से. सारा धंधा चौपट हो जाएगा तो बहुत महत्वपूर्ण सवाल है और इस सवाल का जवाब आने वाले समय के में निहित है, जिसे कहते हैं आने वाला समय बताएगा खास कर अगले 5-6 महीने कि श्रीनगर वैसा का वैसा रहता है कि नहीं.

    सवाल- अभी आपने आवाम इतहाद पार्टी का जिक्र किया. इंजीनियर राशिद की पार्टी और इसके साथ जमात इन दोनों की ही पार्टी को बहुत ज्यादा पब्लिक की तरफ से कोई रिस्पांस नहीं मिला. इसको आप कैसे देखते हैं?

    इसकी संभावना पहले से थी मैंने पिछले शो में कहा था. इन लोगों के बारे में धारणा बन गई है कि चाहे सत्य हो, चाहे गलत. यह बीजेपी की प्रॉक्सी हैं अर्थात कुछ लोगों ने कहा बीजेपी के पिट्ठू हैं. ये वो धारणा उनको ले डूबी. एक तरह से वो सच था कि नहीं था और हो सकता है बीजेपी वाले अंदर से खुश हों, इस बात से कि फॉर्मर मिलिटेंट तो नहीं आए कम से कम.

    जनता ने निपटा दिया. हमें निपटाने की क्या जरूरत है और एक अच्छा साइन है. वो लोग आते सत्ता में जीत के आते फिर कोई मंत्री बन जाता कोई कहता मेरे ये गार्ड लगाओ, मेरे को जेट सिक्योरिटी दो. कोई कुछ कहता तो बड़ा कंट्रास्ट हो जाता. फॉरेन मिलिटेंट की जेट सिक्योरिटी लगा रही है. ईश्वर ने बचाया श्रीनगर को ऐसे लोग नहीं आए वहां पर. 

    सवाल- घाटी में बीजेपी ने 19 उम्मीदवार उतारे. उनमें से एक को भी जीत नहीं मिली, क्या वहां के लोगों का माइंडसेट अभी तक नहीं बदला है?

    ऐसा ही लगता है. वही माइंड सेट है कि भारत है, यह इंडिया है और ये अनफॉर्चूनेटली, लोगों के लिए, श्रीनगर के लिए क्या नहीं किया. अगर अमित शाह 370 नहीं हटाते लॉ एंड ऑर्डर ऐसे स्ट्रॉन्ग नहीं होता, तो क्या नॉर्मल बिजनेस होता. क्या घाटी के लोगों को रोजगार मिलत. क्या घाटी के लोगों के घर के बाहर सड़क बनती.

    सवाल- नई सरकार में आपको क्या लगता है कि कश्मीरी पंडितों का कुछ भला हो पाएगा?

    होना चाहिए सेंटर तो चाहेगा ही और फॉर्चूनेटली जो अब्दुल्ला का घोषणा पत्र है नेशनल कॉन्फ्रेंस का, उसमें लिखा हुआ है, हम इसके लिए काम करेंगे तो अच्छा है. अगर वो मन से काम करेंगे तो थ्रेट तो वहीं से थी ना, मिलिटेंट से. नेशनल कॉन्फ्रेंस कह दो, चाहे पीडीपी कह दो. वहीं के लोकल पार्टी के क्लोज थे तो अगर अब्दुल्ला या मुफ्ती कह ये मन से चाहेंगे थोड़ा कि अभी थोड़ा इनको वापस लाना चाहिए. बहुत हो गया अब तो कोई आतंकवाद तो रहा नहीं कोई थ्रेट नहीं है, जो है तो उनके प्रॉब्लम क्या है रिबन की अथवा एंप्लॉयमेंट की है तो आई एम होप फुल के इन दिनों में,  इन कश्मीरी पंडित्स के लिए कुछ अच्छा हो. भारत सरकार भी करें अब्दुल्ला भी करें.

    ऐसी आशा की जानी चाहिए, जो वैष्णो देवी सीट है, उस पर बीजेपी के प्रत्याशी की जीत होती है. इस जीत को आप किस तरह देखते हैं. हां, सिंबॉलिक है. अयोध्या में हार गए थे. धर्म की सीट, मंदिर की सीट, आस्था की सीट, तो मान लीजिए उसके रिवर्स में वशम देवी में जो है वो जीत गए हैं. 

    एक जो बीजेपी का जो बेसिक कल्चर या स्वभाव या एजेंडा था उस पर चुनौती आ गई थी. एक तरह से तो एक आशा की किरण है ये कि नहीं भाई बीजेपी अभी भी धार्मिक संस्कारों की, इनकी पार्टी मे लोगों की आस्था है. भाजपा के अंदर और देखो वैष्णो देवी जो बहुत बड़ा एक स्थान है अयोध्या के टक्कर का स्थान है, जो वहां देखिए भाजपा को वोट दिया लोगों ने. यह एक अच्छा मैसेज है. यह बीजेपी के लिए एक मोराल बूस्टर है.

    सवाल- लाइटर नोट पर एक सवाल है कि पिछले दिनों राहुल गांधी ने कहा कि प्रियंका गांधी को जलेबी बहुत पसंद है और उसके बाद जलेबी का किस्सा चल पड़ा जो कल नतीजों तक भी रहा. जाहिर तौर पर हरियाणा में चुनाव नहीं जीत पाई कांग्रेस तो वह फीका पड़ गया, क्योंकि जम्मू कश्मीर में एनसी और कांग्रेस की सरकार बनी है तो आपको लगता है जैसे कॉफी पीने लाल चौक गए थे राहुल गांधी, वैसे ही हर बार आप जिक्र करते हैं शक्ति स्वीट्स का तो वहां जाएंगे जलेबी खाने प्रियंका गांधी को लेकर?

    जा सकते हैं लेकिन अब जलेबी का मुद्दा तो देखो बीजेपी ने पीट दिया. नरेंद्र मोदी की खास बात क्या है. कांग्रेस जो भी कोई नारा लेकर आती है उसको पीट देते हैं. उसी नारे से पीट देते हैं, उसको अब जलेबी लाए तो थे बात तो यहां से बनी थी और बीजेपी ने उसको हाईजैक कर लिया और बड़े पैमाने पर बीजेपी में जलेबिया बन रही हैं. लोग खा रहे हैं, आ रहे हैं, जा रहे हैं. ये है एक तो इसका पार्ट ये था कि जो नारा कांग्रेस लाई थी वो बीजेपी ने पीट दिया, नरेंद्र मोदी ने पीट दिया उसको जो है सेकंड पार्ट ये कि वहा जाएंगी तो शक्ति सीट तो फेमस शॉप है. पूरे कंट्री में जलेबी की जो है अब वो जाएंगे नहीं तो शो देख लेंगे तो जाएंगे.

    और श्रीनगर घूमने का शौक तो सबको रहता ही है. प्रियंका गांधी हों, चाहे राहुल गांधी हों जाएंगे तो ठीक है. लेकिन उनको वो शक्ति सीट पर जलेबी खाते समय कतार में खड़े होकर ये सोचना पड़ेगा कि ये दिन कौन लाया यहां. ऐसा लॉ एंड ऑर्डर कौन लाया. ये नरेंद्र मोदी, अमित शाह लाए. श्रीनगर के अंदर इससे पहले तो लाल चौक से घुस ही नहीं सकते थे, वहां से चाहे राहुल गांधी हों, चाहे प्रियंका गांधी हों आज जलेबी खाने की सोच रहे हैं तो उनको जलेबी खाने जरूर जाना चाहिए.

    सवाल- हरियाणा की जीत पर बीजेपी जश्न मना रही है, लेकिन जम्मू कश्मीर में हार को लेकर उतना अफसोस झलक नहीं रहा है, क्या आप इसको एक कांट्रडिक्शन की तरह देखते हैं या कुछ और है?

    नहीं ठीक है वो पता है सबको. सब वो मन में जानते हैं कि सरकार के पास क्या ताकत है. सारी ताकत सारा गेम तो इसके पास है. सारी सत्ता की चाबी तो एलजी के पास है, एलजी इनका आदमी है. भारत सरकार का आदमी है. डबल इंजन का आदमी. मान लीजिए भाई प्रॉक्सी तो संपर्क रहता ही लोगों का, जो है ये तो जानते हैं भी आईएएस, आईपीएस के ट्रांसफरेंस गवर्नर करेगा. लॉ एंड ऑर्डर है गवर्नर करेगा. डेवलपमेंट के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट है, फाइनेंस गवर्नर करेगा. कैबिनेट मीटिंग के फैसले होंगे गवर्नर अप्रूव करेगा तो क्यों इस पर भी शोर मचाओ और उन्होंने स्वीकार कर लिया ना मन से कि अरे घाटी के लोग हैं ना उनकी भाषा में यह सुधरेंगे नहीं.

    यार ऐसे इंडिया माइंड सेट रहेगा इनका, चलो निभाओ इनके साथ. कश्मीर तो कम से कम डिस्टर्ब नहीं हो. कश्मीर तो शांतिपूर्ण रहे, एक तरह से जो है तो ऐसे चलता रहेगा ये बिल्कुल.

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