Holi 2025: होली का त्योहार भारत में हर राज्य और संस्कृति के हिसाब से अपनी विशेषताओं के साथ मनाया जाता है, और मध्य प्रदेश में इसे एक बेहद खास तरीके से मनाया जाता है. यहां के आदिवासी इलाकों में होली के साथ जुड़ा एक विशेष मेला, जिसे 'भगोरिया मेला' कहा जाता है, विशेष आकर्षण का केंद्र होता है. यह मेला न सिर्फ होली के रंगों से भरपूर होता है, बल्कि इसमें प्रेम, परंपरा और संस्कृति का भी अनूठा संगम देखने को मिलता है.
भगोरिया मेला: एक अनोखा त्योहार
मध्य प्रदेश के झाबुआ, खरगोन, बड़वानी, धार और अलीराजपुर जैसे आदिवासी इलाकों में होली से सात दिन पहले भगोरिया मेला आयोजित किया जाता है. यह मेला खास तौर पर उन क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय द्वारा मनाया जाता है, जहां लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं को जीवित रखते हुए इस दिन को धूमधाम से मनाते हैं. मेलों में हर उम्र के लोग शामिल होते हैं – बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी इस उत्सव का हिस्सा बनते हैं.
मेला में प्रेम और परंपरा का संगम
भगोरिया मेला सिर्फ रंगों का ही नहीं, बल्कि एक अनोखे प्रेम पर्व का भी प्रतीक है. यहां विवाह योग्य युवक-युवतियां अपने जीवनसाथी का चयन करते हैं. यह मेला एक प्रकार से आदिवासी समाज का सबसे बड़ा सामाजिक और सांस्कृतिक आयोजन बन चुका है. यहां के लोग पूरी सज-धज के साथ आते हैं, ढोल-नगाड़ों की ध्वनि से वातावरण गूंज उठता है, और मेला रंगों से सराबोर हो जाता है.
जीवनसाथी का चयन: एक दिलचस्प परंपरा
भगोरिया मेला में जीवनसाथी चुनने की परंपराएं भी बेहद दिलचस्प होती हैं. अगर किसी युवक को कोई युवती पसंद आती है, तो वह उसे पान खिलाता है. अगर लड़की पान खा लेती है, तो इसका मतलब यह समझा जाता है कि उसने विवाह के लिए हां कह दी है. फिर दोनों युवा मेले से भागकर शादी कर लेते हैं. यह परंपरा सच्चे प्रेम को सम्मान देने का एक अनूठा तरीका है.
इसके अलावा, जीवनसाथी चुनने का एक और तरीका भी है. अगर किसी युवक को कोई युवती पसंद आती है, तो वह उसे गुलाबी रंग से रंगता है. अगर लड़की भी उसे रंग देती है, तो यह समझा जाता है कि दोनों का संबंध तय हो गया है. इस अद्भुत परंपरा के तहत, भगोरिया मेला न केवल एक सामाजिक उत्सव होता है, बल्कि यह रिश्तों और प्रेम की पहचान का प्रतीक भी बन चुका है.
इतिहास और मान्यता
भगोरिया मेले की शुरुआत की कहानी भी काफी दिलचस्प है. मान्यता है कि यह मेला राजा भोज के समय से चला आ रहा है, जब दो भील राजाओं कासूमार और बालून ने इसे भगोर में शुरू किया था. इसके बाद से यह मेला हर साल मनाया जाने लगा. कुछ लोग यह मानते हैं कि एक समय माताजी के श्राप के कारण भगोर नामक गांव उजड़ गया था, लेकिन बाद में इसे फिर से बसाया गया और अब यहां हर साल इस मेले का आयोजन किया जाता है.
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