जब 1971 की जंग छिड़ी थी, तब आम लोगों की ज़िंदगी भी युद्ध के मैदान में उतर गई थी. फर्क बस इतना था कि उनकी लड़ाई घरों की खामोश दीवारों के पीछे और सायरन की गूंज के बीच थी. NBT के अनुसार दिल्ली के द्वारका में रहने वाले रमेश मुमुक्षु उस दौर को याद करते हुए कहते हैं,
“सायरन बजते ही हड़कंप मच जाता था. जो बाहर होते, वे जमीन पर लेट जाते और जो घरों में होते, खिड़कियों को ढंक देते. बीड़ी की आग तक से डर लगता था कि दुश्मन उस रोशनी को निशाना बना सकता है.” रमेश उन दिनों मोती बाग की सरकारी कॉलोनी में रहते थे. स्कूल बंद थे, दिन में डर और रात भर पहरा—जंग सिर्फ बॉर्डर पर नहीं थी, हर गली, हर मोहल्ले में थी.
सायरन की आवाज़ और अलर्ट की तैयारी
रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल संजय कुलकर्णी बताते हैं कि एयर रेड सायरन किसी फैक्ट्री के सायरन जैसे ही होते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि ये सायरन जीवन और मौत का अलर्ट होते हैं. जहां भी जनसंख्या है, वहां इन सायरनों को इस तरह से लगाया जाता है कि सभी को सुनाई दे. जब दुश्मन का हमला आसन्न हो, तो सायरन बजाकर जनता को चेतावनी दी जाती है .“अब सावधान हो जाओ, खुद को बचाओ.” मॉक ड्रिल्स में भी यही सिखाया जाता है कि सायरन बजते ही क्या कदम उठाने हैं.
ब्लैकआउट: जब शहर अंधेरे में डूब जाते थे
ब्लैकआउट का मतलब होता है. पूरी तरह से अंधेरा. जैसे ही सायरन बजता था, घरों की सारी लाइटें बंद कर दी जाती थीं. खिड़कियों पर काला रंग या कार्बन पेपर लगाया जाता ताकि अंदर की रोशनी बाहर न जाए और दुश्मन के विमानों को ऊपर से कोई निशाना न दिखे. यह एक रणनीति थी, जो आम लोगों के सहयोग से पूरी होती थी.
बंकर नहीं तो क्या विकल्प था?
भारत में हर क्षेत्र में बंकर उपलब्ध नहीं थे. लेफ्टिनेंट जनरल कुलकर्णी बताते हैं कि 1965 और 1971 में शहरों में ट्रेंच (गहरी खाइयां) बनाई जाती थीं. जैसे ही सायरन बजता, लोग उन्हीं खाइयों में जाकर छुपते थे. कई बार रास्ते में चलते लोग और गाड़ियां भी अचानक रुक जाती थीं और जमीन पर लेटकर खुद को बचाने की कोशिश करते थे. वे बताते हैं कि लोधी रोड स्थित उनके स्कूल बाल भारती में भी ट्रेंच बनाई गई थी और सायरन बजते ही बच्चे उसमें कूद जाते थे.
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